Sunday, December 6, 2009

आदिविद्रोही नाट्य समारोह भोपाल में विवेचना का नाटक ’आंखों देखा गदर’ सराहा गया

स्वराज संस्थान, भोपाल द्वारा प्रतिवर्ष आदि विद्रोही नाट्य समारोह का आयोजन भोपाल में किया जाता है। इस समारोह में आदिवासी जननागरण के नायकों और विद्रोह की परंपरा में सदियों से अपनी आहुति देने वाले चरित्रों पर केन्द्रित नाटकों का मंचन किया जाता है। इस वर्ष विवेचना, जबलपुर को समारोह में आमंत्रित किया गया। 4 दिसंबर 2009 को विवेचना ने वसंत काशीकर के निर्देशन में ’आंखो देखा गदर’ नाटक का मंचन किया। आंखो देखा गदर स्व अमृतलाल नागर की रचना है। यह मराठी पुस्तक माझा प्रवास का हिन्दी रूपांतर है। सन् 1857 के विद्रोह के समय पुणे का एक ब्राह्मण विद्रोह के इलाके में घूम रहा था। उसने गदर आंखों से देखा। पुणे लौटकर उसने आंखों देखा गदर लिपिबद्ध किया और इस तरह ’माझा प्रवास’ अस्तिस्त में आया। इस पुस्तक में इन्दौर, महू, धार, उज्जैन, ग्वालियर, झांसी, कानपुर, लखनऊ और बनारस का बहुत विस्तृत और रोचक विवरण है। पुस्तक के लेखक विष्णुभट्ट गोडशे वरसईकर झांसी में रानी लक्ष्मीबाई को साक्षात देखा उनसे कई बार मिले, झांसी नगरी को घूमा। रानी झांसी का शासन और न्याय करने का तरीका, उनका रहन सहन बोलचाल और वेशभूषा उनकी सवारी सबकुछ का विवरण इस पुस्तक में है। इस पुस्तक के रानी झांसी के अंश को आंखो देखा गदर नाटक में प्रस्तुत किया गया है। महाराष्ट्र के सांगली जिले के बुधगांव की मंडली को पोवाड़ा शैली में नाटक को मंचित करने के लिए आमंत्रित किया गया। शाहीर अवधूत बापूराव विभूते और उनके साथियों की मंडली ने बहुत ही दमदार संगीत और आवाज के साथ जो पोवाड़ा शैली की ख़ासियत है आंखो देखा गदर हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया। नाटक का इतना सशक्त प्रस्तुतिकरण था कि दर्शक अभिभूत हो गये। दर्शकों ने कहा कि उन्हें शाहीर अमरशेख की याद आई। नाटक में सूत्रधार का किरदार संजय गर्ग ने निभाया। निर्देशक वसंत काशीकर ने बताया कि इस नाटक के अगले मंचनों में कई नए चरित्रों, घटनाओं को जोड़ा जाएगा। नाटक के डिज़ायन में परिवर्तन किये जाएंगे। है।
निर्देशकीय
सन् 1857 के गदर के 150 साल पूरे हो चुके हैं। आज का समय घटनाओं के विश्लेषण का समय है। यह समय 1857 की घटनाओं के विश्लेषण का समय है। इसीलिये आज 1857 एक बार फिर जाग उठा है। उसका पुनरावलोकन हो रहा है। बहुत से ऐतिहासिक तथ्य सामने हैं। पर आंखो देखा हाल विरल है। कुछ अंगे्रजों ने आंखों का देखा लिखा है। पर हिन्दी और भारतीय भाषाओं में यह दुर्लभ है। जब हम 1857 के बारे में जानना चाहते हैं तो बहुत कम जान पाते हैं। ऐसे समय में विष्णु भट्ट गोडशे वरसईकर की मराठी पुस्तक ’माझा प्रवास’ का हिन्दी रूपांतर आंखों देखा गदर के रूप में जब हाथ आता है तो अचानक ही हम धनवान हो उठते हैं। लगता है कि जैसे हम कोई फिल्म देख रहे हैं। पुस्तक चित्रपट के रूप में एक सूत्र में बंधी हुई चलती है। हर दृश्य, हर घटना का वर्णन बहुत सजीव और मार्मिक है। लक्ष्मीबाई के शौर्य, झांसी की लड़ाई और गदर का इतना सुंदर वर्णन शायद की कहीं पढ़ने को मिल सकेगा। इस किताब का अनुवाद अमृतलाल नागर ने किया है। नागर जी ने कहा भी है कि मूल किताब की भाषा इतनी सरल और रोचक है कि उन्हें अनुवाद में इसे बरकरार रखना एक चुनौती रहा।
’माझा प्रवास’ की मराठी पृष्ठभूमि के कारण इसके मंचन के लिये ऐसा तरीका तलाश किया जाना था जो बेहतर संप्रेषण कर सके, कृति के साथ न्याय भी कर सके और इसी तलाश में महाराष्ट्र की प्रख्यात लोकशैली पोवाड़ा सहायक बनी। ऐतिहासिक और राष्ट्रीय नायकों के चरित्र का वीर रस पूर्ण गायन पोवाड़ा महाराष्ट्र की लोकप्रिय और प्रभावी शैली है। लोकजागरण हेतु इसका ऐतिहासिक प्रयोग हुआ है। अन्नाभाउ साठे, अमर शेख संजीवन, शंकरराव निकम आत्माराम पाटिल जैसे पोवाड़ा के महान प्रस्तोता हुए हैं।
पोवाड़ा का इतिहास लगभग 400 वर्ष पुराना है। समाज के गुण दोष दिखाने और लोक जागरण के लिए पोवाड़ा का जन्म हुआ। वीररस पोवाड़ा की आत्मा है। यह इसका स्थायी भाव है। साथ ही श्रंृगार, हास्य, करूणा इसके पूरक तत्व हैं। वीर रस का पोवाड़ा और श्रृंगार रस की लावणी ये एक ही शरीर के दो हाथ हैं। पोवाड़ा का प्रमुख विषय शिवाजी रहे हैं।
मराठी काव्यधारा को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। संत कवि जो इहलौकिक विषयों पर लिखें, पंत कवि जो बौद्धिक विषयों पर लिखें और तंत कवि जो लोक विषयों पर लिखें। पोवाड़ा गायक को गांेधाली या शाहीर कहा जाता है। सन् 1857 के गदर का जो आंखो देखा हाल विष्णु भट्ट गोडसे वरसईकर ने माझा प्रवास में लिखा उसे दर्शकों तक पंहुचाने के लिए सांगली जिले के बुधगांव के शाहीर अवधूत बापूराव विभूते और उनके साथियों का सहयोग मिला और पोवाड़ा जैसी सशक्त लोकशैली के माध्यम से यह संभव होने से वह रोचक और ऐतिहासिक बना।
कथ्य
मुम्बई के ठाणे जिले के वरसई के निवासी वेदशास्त्र संपन्न विष्णुभट्ट शास्त्री गोडशे पेशे से पुरोहित भिक्षुक ब्राह्मण थे। गरीबी और कर्ज से मजबूर होकर उन्होंने ग्वालियर की रानी द्वारा मथुरा में आयोजित एक महायज्ञ में भाग लेकर मोटी दक्षिणा पाने के लिए लंबी यात्रा की। यात्रा काल वही था जब देश गदर के दौर से गुजर रहा था। उन्होंने यात्रा के दौरान जो गदर देखा उसका बहुत सटीक वर्णन किया है। उन्होंने वरसई से पुणे, नगर, सतपुड़ा वन्य प्रदेश, इंदूर, मउ, उज्जैन, धार, सारंगपुर, ग्वालियर, झांसी, कानपुर लखनऊ, काशी और फिर वापस वरसई तक की यात्रा की। दृव्यार्जन की लालसा से गदर के ही क्षेत्र में उन्हें पैदल सफर करना पड़ता था। गोरों की बंदूकों से बार बार उनका सामना हुआ करता था। उन्होंने मानवता और दानवता के दृश्य साथ साथ देखे थे। आम जनता अंग्रेजों से भय और घृणा करती थी और दिल से चाहती थी कि अंग्रेज इस देश को छोड़कर चले जाएं। आंखों देखा गदर आम जन की आंख से इस घटना को देखता है। इस प्र्रस्तुति में ’माझा प्रवास’ का वो अंश लिया गया है जो रानी झांसी लक्ष्मीबाई और उनके क्षेत्र में हुए गदर से संबंधित है। पूरी पुस्तक का दायरा बहुत बड़ा है और कई खंडों में काम की मांग करता है।

मंच पर
सूत्रधार वसंत काशीकर/संजय गर्ग
प्रमुख गायक/शाहीर अवधूत बापूराव विभूते
सहायक मार्शल सज्जन मोरे
बजरंग बापूसो अब्दागीरे
बालासाहेब पाटील
शुभम अवधूत विभूते
नारायण दादू पाटील
ओंकार अवधूत विभूते
मंच परे
ध्वनि प्रकाश हिमांशु राय
मूल पुस्तक माझा प्रवास
लेखक विष्णुभट्ट गोडशे वरसईकर
हिन्दी रूपांतर अमृतलाल नागर
नाट्य रूपांतर वसंत काशीकर, अवघूत बापूराव विभूते
प्रस्तुति प्रबंधन बांकेबिहारी ब्यौहार
प्रस्तुति परिकल्पना एवं निर्देशन वसंत काशीकर
नाट्य दल 13 कलाकारों का है और अवधि 1 घंटा 15 मिनिट है।

Friday, November 20, 2009

वामिक जौनपुरी जन जागरण सांस्कृतिक यात्रा (2-4 नवम्बर 2009, आजमगढ़ से जौनपुर)


उर्दू के अवामी षायर वामिक जौनपुरी ने अपनी वसीयत कुछ यूँ लिखीः-
‘‘ये इंकलाब है किश्तेरे अवाम का हासिल
हमें न भूलना जब मुल्क में हो वो दाखिल
मेरे भी नाम से दो फूल उसके बैरक पर
मेरी तरफ से भी दो नारे उसकी रौनक पर’’
इस नाउम्मीद से समय में वामिक की षायरी उम्मीद की एक किरण के रूप में अंधेरी राहों को रोषन करती है। समूचा प्रगतिषील सांस्कृतिक आन्दोलन वामिक का ऋणी है। कैफी के षब्दों में
‘‘कोई तो कर्ज चुकाये कोई तो जिम्मा ले
उस इंकलाब का जो आज भी उधार सा है’’
इस कर्ज को चुकाने की जिम्मेदारी तो अवाम पर है लेकिन उसे इस जिम्मेदारी के लिए तैयार करने का काम तो संगठनों का है। ‘इप्टा’, प्रगतिषील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच और कलम नाट्य मंच ने 2 नवंबर से 4 नवंबर 2009 तक कैफी के आजमगढ़ से वामिक के जौनपुर तक दर्जनों गावों-कस्बों में अपने गीतों-नाटकों के जरिये वामिक जौनपुरी के इंकलाब के संदेष को आम अवाम तक पहुँचाने की कोषिष की।
वामिक जौनपुरी के ‘जन्म षताब्र्दी’ साल में ‘भूखा है बंगाल रे साथी’ जैसे अमर गीत के रचयिता वामिक की आवाज हमारे गीतों, नाटकों में उसी तरह थी जैसे फैज ने कहा थाः-
क्या जुल्मतों के बाद भी गीत गाये जायेंगे,
हाँ जुल्मतों के दौर के ही गीत गाये जायेंगे’
1942-43 में बंगाल में ब्रिटिष साम्राज्यवाद द्वारा निर्मित अकाल के लाखों पीड़ितों के लिए देष भर के कलाकार अकाल पीड़ितों के लिए राहत सामग्री जुटाने निकल पडे़ थे। 1943 में बंगाल में खाद्यान्न की कमी नहीं थी लेकिन लोग भूखों मर रहे थे, आज देष खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर है लेकिन अन्न उपजाने वाले लाखों किसान आत्महत्या के लिए अभिषप्त हुए हैं, पर क्या हम लेखक-कलाकारों को इन हत्याओं ने क्या उतना झकझोरा है जितना अखबारों में छपी बंगाल के अकाल की खबरों ने जौनपुर में वामिक को झकझोरा था। वामिक अखबार में छपी खबरें पढ़ कर कलकत्ता पहुँच गये और वहाँ उन्होंने तबाही का जो मंजर देखा उस पर ‘‘भूखा है बंगाल रे साथी भूखा है बंगाल’’ जैसी तारीखी नज्म लिखी।
हर उस बस्ती में हर उस गाँव में, जहाँ कोई भूख से, कर्ज से,षोशण से मरा हो, पहुँचने का जज्बा और हौसला तो अभी हम नहीं बना सके हैं पर शिवली एकेडेमी में वामिक को, उनकी षायरी को याद करते हुए राहुल की जन्मस्थली ‘पन्दहा’ पर कुछ देर का पड़ाव और फिर अनेक स्थानों पर वामिक के बहाने हम यह समझ सकेः-
‘तुम्ही ने नजरूल, निराला, मखदूम जैसों को अपना गम दिया है,
तुम्हीं ने दानिषवरों को अपने षाऊर का जामे जम दिया है,
तुम्हीं ने सेहाफियों को बला का ज़ोरे कलम दिया है,
तुम्हीं ने अपनी हसीन तहजीब को लचकता कदम दिया है’’
‘कला की असली नायक जनता है’ आज भी हमारे गीतों और नाटकों में यह केन्द्रीय तत्व है जिसे हमने वामिक जैसे पूर्वजों से लिया है और इसे ही पुख्ता करने के लिए हम 2 नवंबर 2009 को आजमगढ़ में इक्टठा हुए।
2 नवंबर 2009
अपरान्ह 2 बजे षिवली एकेडेमी के हाॅल में ‘वामिक जौनपुरी की विरासत’ पर आयोजित संगोष्ठी के साथ इस यात्रा की वैचारिक षुरूआत हुई। इलाहाबाद विष्वविद्यालय के उर्दू विभाग के अध्यक्ष, प्रगतिषील लेखक संघ से जुडे़ जाने-माने समालोचक अली अहमद फातमी ने वामिक को कबीर और नजीर की परम्परा का षायर बताते हुए कहा कि वामिक की षायरी में हिन्दी-उर्दू का भेद मिट जाता है। उन्होंने कहा कि 1943 में बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए वामिक ने नज्म सिर्फ लिखी नहीं बल्कि उसे लेकर वह खुद सड़कों पर उतरे। उन्होंने वामिक के हवाले से कहा कि वामिक कहते थेः-
‘मसला यह नहीं कि मसलों का हल कौन करे,
मसला यह है कि इसकी पहल कौन करे’
इस अवसर पर ‘इप्टा’ के राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र रघुवंषी ने संस्कृतिकर्मियों का आह्वान किया कि आज जिस तरह साहित्य-संस्कृति को हाषिये पर धकेल कर उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है, सुनहले सपनों की चकाचैंध से जनता को भरमाया जा रहा है, उससे आम अवाम को आगाह करने के लिए लेखकों-कलाकारों को कबीर, नजीर, प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, कैफी, वामिक, मखदूम जैसे अदीबों की रचनाओं के साथ जनता के बीच जाना होगा।
इप्टा के प्रान्तीय महामंत्री राकेष ने कहा कि वामिक की विरासत से आम अवाम के सुख दुख में षामिल होने की विरासत है। उन्होंने वामिक के हवाले से कहाः-
‘तुम्हारे हल बैल ने हमारे कलम को षाइस्तगी अदा की,
तुम्हारी गुरबत ने हमको फिक्रे नजर की जरजस्तगी अदा की’
हमारी तखलीक को तुम्हारे ख्याल ने बालो पर दिये हैं
हमारी तहरीक को तुम्हारी कुदाल ने रहगुजर दिये हैं’
इप्टा रायबरेली के प्रान्तीय महामंत्री तथा इप्टा के प्रान्तीय मंत्री संतोष डे ने कहा कि हमारी पीढ़ी के संस्कृतिकर्मी वामिक की विरासत से जुड़कर गौरवान्वित हैं और उनकी षायरी से हमारी हौसला अफजाई होती है। आजमगढ़ के संस्कृतिकर्मी तहसीन खाँ ने कहा कि वामिक जौनपुरी की षायरी समूचे प्रगतिषील सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रकाष स्तम्भ है। हम उनकी कल की रचनाओं की रोषनी में अपना आज संवारने निकले हैं।
गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे षिवली एकेडेमी के एसोसिएट डायरेक्टर उमर सिद्दीकी ने कहा कि षिवली एकेडेमी से वामिक जौनपुरी की यात्रा की षुरूआत अंधेरे दौर में रोषनी की षुरूआत है। उन्होंने कहा-जिस तरह मौलाना षिवली ने इल्म का रिष्ता अवाम से जोड़ा उसी तरह वामिक जैसे षायरों ने षायरी को अवाम से जोड़ा।
षिवली कालेज के उर्दू के विभागाध्यक्ष डाॅ षबाबुद्दीन ने कहा कि उन्हें इस बात पर फक्र है कि उनके निर्देषन में षिवली कालेज में वामिक की षायरी पर षोध किया गया है। उन्होंने तरक्कीपसंद तहरीक के योगदान पर चर्चा करते हुए कहा कि अवाम से जुड़कर ही वामिक, कैफी, साहिर, फैज जैसे ष्षायरों ने हुस्न को एक नया मयार दिया और इन्सानियत के झंडे को बुलन्द किया।
गोष्ठी का संचालन इप्टा आजमगढ़ के संरक्षक, आजमगढ़ जनपद में जनान्दोलनों के जुझारू सिपाही, संस्कृतिकर्मी हरमिन्दर पाण्डे ने किया।
षाम 5 बजे से इप्टा आजमगढ़, लखनऊ, रायबरेली और आगरा के कलाकार लगभग 7 किमी की पैदल यात्रा करते हुए राहुल पे्रक्षागृह तक गये। रास्ते में कलाकारों ने गीतों और लोकनृत्यों के जरिये आजमगढ़ के लोगों को घंटों गीत-संगीत मय रखा। रास्ते में कलाकारों ने राहुल सांकृत्यायन, नाटककार लक्ष्मीषंकर मिश्र, भगत सिंह, समाजवादी नेता विश्राम राय की मूर्तियों पर माल्यार्पण कर उन्हें सांस्कृतिक यात्रा की ओर से नमन किया।
राहुल प्रेक्षागृह में इप्टा लखनऊ, आजमगढ़, आगरा के जनगीतों के अलावा इप्टा आजमगढ़ के लोककलाकारों ने जांघिया व धोबिया नृत्यों की प्रस्तुति की। इन नृत्यों के पारम्परिक स्वरूपों के साथ बैजनाथ यादव ने आज के किसानों, गरीबों की समस्याओं को कुषलता के साथ जोड़ा है। सांस्कृतिक संध्या का समापन दिलीप रघुवंषी के निर्देषन में इप्टा आगरा के बहुचर्चित नाटक ‘राई’ का मंचन किया गया। इस अवसर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रान्तीय सचिव डाॅ. गिरीष तथा भाकपा के जिला सचिव हामिद अली लगातार कलाकारों का उत्साहवर्धन करते रहे। इस अवसर पर वामिक जौनपुरी पर केन्द्रित ‘वर्तमान साहित्य’ के नये अंक का विमोचन भी किया गया।
3 नवंबर 2009
सुबह 9 बजे सांस्कृतिक यात्रा में षामिल कलाकारों का पहला पड़ाव था राहुल का जन्मस्थल ‘पन्दहा’। कलाकारों ने पन्दहा में अभी हाल में स्थापित राहुल की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया। पन्दहा में षोक का वातावरण था। 25 अक्टूबर को राहुल की सहधर्मिणी कमला सांस्कृत्यायन नहीं रही। 2 नवंबर को ही पन्दहा में राहुल स्मारक बनाने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले आइपीएस विजय कुमार के चैदह वर्षीय बेटे की आकस्मिक मृत्यु ने भी वातावरण को षोकाकुल कर दिया। साथ ही दो तीन दिन पहले ही राहुल सांस्कृत्यायन के परिवार से जुड़ी एक महिला के दुखद निधन के कारण सांस्कृतिक कार्यक्रम को रोककर कलाकारों ने सभी दिवंगतों को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि दी। इस षोकाकुल माहौल में भी राहुल जनकल्याण समिति के प्रबंधक राधेष्याम पाठक ने कलाकारों का स्वागत किया और उन्हें जलपान कराया।
आजमगढ़ चेकपोस्ट, मोहम्मदपुर, बिन्द्रा बाजार, गोसाई बाजार में कार्यक्रमों के बाद यात्रा लालगंज तहसील के प्रांगण में पहुँची जहाँ आजमगढ़ इप्टा के लोककलाकारों द्वारा पहले से ही लोकगीतों और लोकनृत्यों के कार्यक्रम प्रस्तुत किये जा रहे थे। एक किनारे पर दो दर्षकों में बहस चल रही थी। एक की टिप्पणी थी ‘यह लोग कार्यक्रम तो अच्छा कर रहे हैं, इन्हें पैसा कौन देता है? दूसरे ने कहा-‘सुन नहीं रहे हो इनके गीत, पूंजीपतियों की सरकार की जमकर खिल्ली उड़ा रहे है, भला इन्हें पैसा कौन देगा। पहले ने फिर टिप्पणी की-‘फिर भी कहीं से तो पैसा पाते होंगे। लाल झंडा थामे एक कामरेड ने हस्तक्षेप करते हुए कहा-हाँ यह हम गरीब मजदूरों, किसानों से पैसा पाते हैं। जो हम खाते हैं वही इन्हें खिलाते हैं और यह कलाकार हमारी समस्याओं को ही अपने गीतों, नाटकों में उठाते हैं। एक और व्यक्ति ने टिप्पणी की-बात तो सच्ची और सही कहते हैं पर थोड़ा मज़ा और आना चाहिए। सुनने वाले कलाकारों ने भी समझा-जनता को स्वस्थ मनोरंजन भी चाहिए। जब यह वार्तालाप चल ही रहा था तभी आगरा इप्टा के साथियों ने षुरू किया राजेन्द्र रघुवंषी की कहानी पर आधारित नाटक ‘सात जूते’। कैसे एक कंजूस सेठ को उसका मुनीम सबक सिखाता है। कथा और प्रस्तुतीकरण इतना रोचक था कि जनता ने सचमुच कहा-मजा आ गया।
लालगंज तहसील प्रांगण में भाकपा के जिला सचिव हामिद अली ने यात्रा का स्वागत करते हुए कहा कि इस तरह की सांस्कृतिक यात्राओं का क्रम जारी रहना चाहिए। भाकपा के प्रदेष सचिव डाॅ गिरीष ने कहा कि वामिक जौनपुरी के बहाने यह यात्रा किसान-मजदूरों की समस्यायें उठाने के साथ-साथ फिरकापरस्ती, जातिवाद, रूढ़िवाद और पुनरूत्थानवाद पर भी चोट करती है और प्रगतिषील षक्तियों का यह दायित्व है कि इस जनजागरण अभियान में कलाकारों की पूरी मदद की जाये।
लालगंज से यह यात्रा मीरा बाजार पहुँची जहाँ 1942 की आजादी की लड़ाई के समय स्वतंत्रता सेनानियों के एक सभास्थल को क्रान्तिकारी चबूतरे का नाम दिया गया है। इसी चबूतरे पर अपार जनसमूह पहले से ही एकत्र था। यहाँ जनगीतों के अलावा रायबरेली इप्टा के साथियों ने अपना नाटक ‘सरकार की जनता’ प्रस्तुत किया। दर्षकों की भारी भीड़, उत्साह के कारण 4 बजे समाप्त होने वाला कार्यक्रम षाम 6 बजे तक चला। आगे वरदह में प्रगतिषील लेखक संघ के साथी संजय श्रीवास्तव अन्धेरा होने की षिकायत कर रहे थे। जब तक यात्रा वहाँ पहुँची गौरा बादषाहपुर के साथियों का आग्रह था कि कलाकारों को फौरन वहाँ पहुँचना चाहिए। मजबूरन वरदह के कार्यक्रम को छोड़कर कलाकार गौरा बादषाहपुर पहुँचे जहाँ जनगीतों का प्रभावी कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया।
गौरा बादषाहपुर से पंवारा तक की यात्रा लगभग 50-60 किलामीटर की थी। रास्ते में पड़ने वालों कस्बों में खासतौर पर मछली षहर में कार्यक्रम किया जा सकता था। आमतौर पर ‘इप्टा’ की सांस्कृतिक यात्राओं में कलाकार इतनी दूर तक बस जीप में सवार हो कर यात्रा नहीं करते रहे हैं। कलाकारों के दिमाग में प्रष्न भी था आखिर जौनपुर षहर को बीच में छोड़कर इतनी दूर गांव में यात्रा को ले जाने का क्या अर्थ? पंवारा पहुँचते ही सारी षंकाओं का समाधान हो गया। पंवारा में पेषे से अध्यापक कम्युनिस्ट पार्टी के समर्पित कार्यकत्र्ता कामरेड पटेल ने एक ऊसर जमीन को न सिर्फ उद्यान के रूप में विकसित किया है बल्कि आसपास के हजारों बच्चों के लिए एक आदर्ष स्कूल भी स्थापित किया है-‘भगौती बाल उद्यान।’ उद्यान के प्रांगण में एक बड़ा सा मंच बना है। जनरेटर चल रहा है। लगभग हजार दर्षक पहले से ही जमा हंै। मंच के सामने पूरी जगह भर गयी है। मंच की बायीं तरफ भी सैकड़ों दर्षक हंै। उनकी सुविधा के लिए क्लोज सर्किट टीवी चल रहा है। दर्षकों की संख्या बढ़ती जा रही है। लगभग 9 बजे कार्यक्रम षुरू होता है जो रात 1 बजे तक चलता है। जितेन्द्र रघुवंषी टिप्पणी करते हैं-न दर्षक हार रहे हैं और न कलाकार। अंत में समझौते के रूप में 1 बजे कार्यक्रम का समापन किया जाता है। यहाँ जनगीतों के अलावा इप्टा लखनऊ का नाटक ‘गिरगिट’ प्र्रस्तुत हुआ और अंत में प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि के अंष का नाट्य रूपान्तर। आज़ादी के पहले रंगभूमि के पात्र सूरदास की ज़मीन हड़पने का सवाल आज भी उसी तरह खड़ा है। तब के सूरदास के पास अदम्य आषा थी जिसके कारण जब उसकी झोपड़ी जलाये जाने पर उससे प्रष्न किया जाता है।‘‘बाबा झोपड़ी में आग लग गयी है अब क्या करेंगे? वह जवाब देता है-‘कोई बात नहीं, फिर बनायेंगे।’ और अगर हजार बार आग लगायी गयी? ‘तो हजार बार बनायेंगे।
हमारे देष का किसान आज भी सूरदास की उस अदम्य आषा के साथ खड़ा है। दर्षकों की भागीदारी का इससे अच्छा सबूत क्या हो सकता है कि कलाकारों ने 10, 20, 50, 100 रूपये तक के तीन हजार रूपये से भी ज्यादा का ईनाम कमाया।
4 नवंबर 2009
प्रातः 9 बजे पंवारा से चल कर यात्रा जौनपुर षहर में ‘नबाब का हाता’ पहुँचती है। लगभग दो घंटे के सांस्कृतिक कार्यक्रम और वामिक जौनपुरी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर व्याख्यानों के बाद यात्रा पहुँचती है। सीधे वामिक जौनपुरी के गांव ‘कजगांव। यहाँ यात्रा का स्वागत भाकपा के जिला सचिव श्रीकृष्ण षर्मा ने किया। जौनपुर में प्रगतिषील षायरी के गायन के लिए मषहूर अकडूँ खाँ ने अस्वस्थता के बावजूद नज्म पेष की। कार्यक्रम का समापन हनीफ खाँ के प्रेरक वक्तव्य से हुआ।
कजगांव का एक नाम है ‘टेढ़वा’ वामिक ने इस टेढ़ेपन को खुद्दारी के रूप में ग्रहण किया। उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। कितनी ही नौकरियों को लात मारी और इस खुद्दारी की वजह से ही वह कह सके-
आहन नहीं हूँ कि चाहे जिधर मोड़ दीजिये,
षीषा हूँ, मुड़ तो सकता नहीं तोड़ दीजिये।

कजगांव में वामिक की कब्र पर फूल चढ़ाते हुए हम बार-बार वामिक की वसीयत को याद कर रहे थे। वहाँ से हम पहुँचे ‘लाल कोठी’।
वामिक की मषहूर ‘लाल कोठी’ आज भी खानदानी सामंती रौब का परिचय देती है लेकिन सामंतवादी जुल्मों को देखकर ही सामंत घराने में पैदा हुए वामिक एक विद्रोही षायर बने। उसी लाल कोठी में चल रहे स्कूल के सैकड़ों बच्चे कजगांव के सैकड़ों स्त्री-पुरूष और खुद वामिक के बड़े सुपुत्र वामिक के क्रान्तिकारी व्यक्तित्व के बारे में समझने की चेष्टा कर रहे थे। वामिक के सुपुत्र श्री एस. एम. जैदी ने टिप्पणी की-मैं तो वामिक की सम्पत्ति का वारिस हूँ लेकिन आज मुझे सचमुच वामिक के असली बड़प्पन का पता लगा। समापन कार्यक्रम में बोलते हुए जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय महामंत्री प्रणय कृष्ण ने कहा कि भूमंडलीकरण के इस हमलावर दौर में वामिक हमें हमारे कत्र्तव्यों की याद दिलाते हैं। इंकलाब का सपना कितना भी अधूरा हो वामिक हमें उस ओर बढ़ने का रास्ता दिखाते हैं और इस रास्ते की पहली कड़ी है वामपंथी प्रगतिषील ताकतों की एकता।
सभा को इप्टा के राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र रघुवंषी और भाकपा के प्रान्तीय सचिव डाॅ गिरीष ने भी सम्बोधित किया। समापन समारोह की अध्यक्षता प्रगतिषील लेखक संघ से जुडे़ जाने माने लेखक षकील सिद्दीकी ने की। धन्यवाद ज्ञापन भाकपा जौनपुर के महासचिव जयप्रकाष सिंह ने दिया। इस समूची यात्रा की परिकल्पना में इप्टा के प्रान्तीय सचिव मुख्तार अहमद और षहजाद रिजवी नेे अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यात्रा में षामिल कलाकारों, भाकपा के समर्पित कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम से ही यह सांस्कृतिक यात्रा संभव हो सकी। संस्कृतिकर्मियों और कामगारों के बीच लगातार सम्वाद और सहयोग से ही जनसंस्कृति की रक्षा संभव है।
लाल कोठी के प्रांगण मंे जहाँ आजमगढ़ इप्टा के लोक कलाकारों ने माटी की सुगंध बिखेरी वहीं इप्टा आगरा ने यहाँ अपना नाटक ‘सात जूते’ प्रस्तुत किया और इप्टा लखनऊ ने चेखव की कहानी पर आधारित नाटक गिरगिट। साथ ही चन्द मिनटों में ही इप्टा के राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र रघुवंषी ने लाल कोठी में चल रहे स्कूल के बच्चों से भी एक गीत पर अभिनय कराकर बच्चों को भी यात्रा से जोड़ा। सांस्कृतिक कार्यक्रम का समापन बैजनाथ यादव और जितेन्द्र हरि पांडे के ‘जोगीरा गायन के साथ हुआ। लम्बे समय तक लाल कोठी में यह आवाज गूँजती रहेगीः-
यह अजीब तरह का दौर है
मगर अपनी रौ भी कुछ और है
मेरी उम्र काबिले गौर है
मैं चला हूँ जैसे जबाँ चले
जाहिर है षायर जब खुद से सम्बोधित होता है तो खुद से नहीं जमानेसे सम्बोधित होता है। समूचे वामपंथी आन्दोलन की उम्र को लक्ष्य करके ही वामिक ने षायद यह आह्वान किया कि समाज बदलने वाले आन्दोलन को खुद भी नौजवान की तरह चलना होगा और नौजवानों से जुड़ना होगा।

विवेचना,जबलपुर का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह

रोचक नाटकों का सफल समारोह
विवेचना मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में काम करने वाली विख्यात संस्था है। विवेचना का गठन स्व हरिशंकर परसाई व उनके साथी बुद्धिजीवियों ने सन् 1961 में किया था। तब इसका उद्देश्य ज्वलंत मुद्दों व समस्याओं पर विचार गोष्ठियों का आयोजन करना था ताकि सच्चाई लोगों के सामने आए। आम जन सही तथ्यों को जानें और अपने स्वयं के विवेक व तर्क से निर्णय लें। सन् 1975 से विवेचना के नाट्य दल ने काम करना शुरू किया। तब से आज तक हर साल एक या दो नए नाटक और उनके मंचन, नाट्य कार्यशालाएं,बच्चों के शिविर आदि सभी कुछ निरंतर जारी है। विवेचना के नाटक देश के प्रतिष्ठित मंचों पर हुए हैं और बहुत सराहे गये हैं।
सन् 1994 से विवेचना द्वारा राष्टीय नाट्य समारोह का आयोजन शुरू किया गया। पहले साल का पहला दिन हबीब तनवीर जी के नाम रहा। उन्होंने ही नाट्य समारोह का उद्घाटन किया और देख रहे हैं नैन का शो किया। दूसरे दिन बंसी कौल, तीसरे दिन बा व कारंत और चैथे दिन सतीश आलेकर के नाटक मंचित हुए। इतनी मजबूत बुनियाद के साथ शुरू हुए विवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोहों में अब तक देश के प्रमुख नाट्य निर्देशकों और नाट्य संस्थाओं व संस्थानों के नाटक मंचित हुए हैं। सर्वश्री हबीब तनवीर, बा.व.कारंत, बंसी कौल, सतीश आलेकर, देवेन्द्रराज अंकुर नादिरा बब्बर, दिनेश ठाकुर, दर्पण मिश्रा, उषा गांगुली, देवेन्द्र पेम, अरविंद गौड़, पियूष मिश्रा, रंजीत कपूर,, अनिलरंजन भौमिक, बलवंत ठाकुर, श्रीमती गुलबर्धन, अलखनंदन, लईक हुसैन, अशोक राही, विवेक मिश्र अजय कुमार, मानव कौल और वसंत काशीकर आदि द्वारा निर्देशित नाटक विवेचना के विगत समारोहों में मंचित हो चुके हैं। विवेचना के रा न समारोह में देश के अधिकांश प्रसिद्ध निर्देशक व नाट्य संस्थाएं शिरकत कर चुकी हैं।
विवेचना का रानास अब हर वर्ष दशहरे और दीपावली के बीच सप्ताह में बुधवार से रविवार तक आयोजित होता है। इस पांच दिनी समारोह में प्रायः 6 या 7 नाटक मंचित होते हैं। अब तक लगभग सौ नाटक मंचित हो चुके हैं। जबलपुर में विवेचना के रा ना स का एक बड़ा दर्शक वर्ग तैयार हुआ है। विवेचना का रा ना स शहर से कुछ बाहर की ओर स्थित म प्र वि मं के तरंग ए सी आॅडीटोरियम में आयोजित होता है। फिर भी नाटक शुरू होने से पहले पूरा हाॅल भर जाता है। बाहर कारों मोटर साइकिलों की कतार लग जाती है। ना समारोह के लिए टिकिट बेचना अब कोई समस्या नहीं है और न दर्शकों की संख्या की चिन्ता करना होती है। अंतिम दो दिनों में पचासों दर्शकोे को सीट के अभाव में वापस जाना होता है।
नाटक के प्रचार के लिये अखबार में एक समाचार ही पर्याप्त होता है जिसे साल भर इंतजार कर रहे दर्शक एक नजर में पढ़कर अपना कार्यक्रम तय कर लेते हैं। शहर में बैनर और आकर्षक पोस्टरों के माध्यम से भी दर्शकों को सूचना दी जाती है। इसके बाद दर्शक एक दूसरे को सूचना देना शुरू कर देते हैं और पूरे शहर में नाट्य समारोह देखने का एक माहौल बन जाता है। ये शहर की एक ऐसी गतिविधि बन चुकी है जिसमें जाना प्रतिष्ठा का प्रश्न है। और जो न गया हो उसके लिए हीनताबोध का।

विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 7 अक्टूबर को ’मित्र’ नाटक के मंचन के साथ शुरू हुआ। इसका निर्देशन व प्रमुख भूमिका वसंत काशीकर ने निबाही। यह नाटक डा शिरीष आठवले ने लिखा है। यह एक ऐसे बुजुर्ग की कहानी है जिसे एक झगड़े में लगी चोटों के इलाज के समय लकवा जैसी बीमारी हो जाती है। इसके इलाज के लिए एक नर्स रखी जाती है जिससे दादा साहब बहुत चिढते हैं। नर्स सावित्री बाई रूपवते अपना काम करती है। धीरे धीरे दादा साहेब सामान्य होने लगते हैं। दादा साहब की लड़की उन्हें अमेरिका ले जाना चाहती है पर वे जाना नहीं चाहते। उसके लिए वे नर्स की मदद से अतिरिक्त मेहनत करते हैं और लगभग पूरी तरह ठीक हो जाते हैं। लड़की को विश्वास नहीं होता और वो उन्हें फिर भी अमेरिका ले जाना चाहती है। डाक्टर समझाता है कि ये चमत्कार दादासाहेब की इच्छा शक्ति का परिणाम है। मित्र नाटक मानवीय संबंधों को बहुत बारीकी से रेशा रेशा अलग करता है। दादा साहब पुरोहित और सावित्री बाई रूपवते के संबंध एक मरीज और नर्स के हैं। मगर बार बार ये संकेत देते हैं कि कुछ और भी हो सकता है। नाटककार ने सावित्री बाई रूपवते के रूप में एक अद्भुत आदर्श चरित्र विकसित किया है। नाटक में पिता पुत्री पिता पुत्र और पति पत्नी के संबंधों के अलग अलग रंग उभर कर आते हैं। लड़की के रोल में उदिता चक्रवर्ती, डा के रूप में संजय गर्ग, पुत्र के रूप में अभिषेक काशीकर ने सहज अभिनय किया है। नाटक मानवीय संबंधों के आदर्शांे को स्थापित करने में सफल है। विवेचना की यह प्रस्तुति बहुत पसंद की गई।

दूसरे दिन 8 अक्टूबर 2009 को महमूद फ़ारूख़ी और दानिश हुसैन ने दास्तानगोई प्रस्तुत की। उर्दू में कथाकथन की पांच सौ साल पुरानी परंपरा है। इसे इन दो कलाकारों ने पुनरूज्जीवित किया है। शुरू में महमूद ने दर्शकों को बताया कि वो क्या प्रस्तुत करने जा रहे हैं। दास्तानगोई क्या है और उसका इतिहास क्या है ये बताया गया। बातचीत पूरी शुद्ध उर्दू में थी। दास्तानें शुरू हुईं तो दर्शकों को कुछ समय लगा इस फ़न से जुड़ने में। थोड़ी देर बाद दर्शक और कलाकारों के बीच एक संबंध सेतु बन गया और फिर दर्शकों ने दास्तानों का पूरा आस्वाद लिया। अंतिम दास्तान 1947 के बंटवारे से संबंधित था। इससे दर्शकों ने बहुत जुड़ाव महसूस किया। दास्तानें केवल दास्तानें न रह कर एक पूरा संदेश बन गईं भाइ्र्र्रचारे का, सर्वधर्मसद्भाव का। धर्मान्धता और संकीर्णता पर दोनों कलाकारों ने बहुत समझदारी से तीखा व्यंग्य किया।

तीसरे दिन 9 अक्टूबर 2009 को रंगविदूषक, भोपाल के कलाकारों ने बंसी कौल के निर्देशन में ’तुक्के पे तुक्का’ का मंचन किया। यह नाटक करीब 15 वर्षों से हो रहा है और इसके मंचन देश और दुनिया के अनेक देशों में हुए हैं। यह एक चीनी लोककथा पर आधारित है। इस नाटक को राजेश जोशी और बंसी कौल ने लिखा है। बंसी जी के नाटकों की अपनी विशिष्टता है। रंगीन लाइट्स, रंगीन वेशभूषा, विदूषकों से रंगीन मेकअप वैसे भी दर्शकों को अच्छा लगता है। फिर कहानी को कहने के लिये ये विदूषक कलाकार सर्कसनुमा कम्पोजिशंस बनाते हैं। नाटक और मंच पर पूरे समय गति बनी रहती है। तुक्के पे तुक्का का नायक तुक्कू है जो गांव का एक चतुर युवक है जिसकी पढ़ाई लिखाई में कोई रूचि नहीं है पर वो चतुर है। वो शहर आकर राजा का चहेता बन जाता है और फिर अंततः घटनाक्रम ऐसा चलता है कि वो सुल्तान बन जाता है। नाटक में डिज़ायन कथ्य पर बहुत ज्यादा हावी दिखाई पड़ता है। नाटक की असली उपलब्धि अंजना पुरी का गायन है जो नाटक को बहुत ऊंचा उठाता है।

नाट्य समारोह के चैथे दिन 10 अक्टूबर 2009 को दिल्ली के पिरोज ट्रुप द्वारा ’मिर्जा ग़ालिब’ का मंचन किया गया। इसमें मिर्जा गालिब का किरदार प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता टाॅम आॅल्टर ने निभाया। यह नाटक मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी बयान करता है। हाली को मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी आत्मकथा लिखवाते हैं और इसी दौरान मंच पर घटनाएं प्रदर्शित होती जाती हैं। लगभग दो घंटे के इस नाटक में ग़ालिब के जीवन को परत दर परत सामने लाया गया हैं। ग़ालिब के जीवन की अच्छी बुरी सभी घटनाओं को नाटक में दिखाया गया है। नाटक में टाॅम आॅल्टर ने अपनी अदाकारी से दर्शकों को बहुत प्रभावित किया। नाटक में गति बहुत कम थी और अनेक कलाकारों का अभिनय अभी कड़ी मेहनत की मंाग करता है। नाटक की अवधि में काफी कटौती की जा सकती है। नाटक में मुशायरे के दृश्य एक शोर में तब्दील हो जाते हैं और उसमें ग़ालिब और उनका कलाम कहीं गुम हो जाता है।

नाट्य समारोह के अंतिम दिन 11 अक्टूबर को दिल्ली के दि एन्टरटेनर्स ने रंजीत कपूर के निर्देशन में ’अफ़वाह’ का मंचन किया। शहर के डिप्टी मेयर वीरेन्द्र नागपाल और कविता नागपाल अपनी शादी की दसवीं सालगिरह पर एक पार्टी देते हैं। इस पार्टी में पंहुचने वाले मेहमान एक अजीब मुसीबत में फंस जाते हैं जब वे पाते हैं कि उनका मेजबान खुद की चलाई गोली का शिकार हो गया है। उसकी पत्नि फरार हो चुकी है। राजेन्द्र वीरेन्द्र का वकील है इसीलिए वह इस घटना को छुपाने की कसरत शुरू करता है और शुरू होता हैै मनोरंजक घटनाओं, ग़लतफ़हमियों का लंबा सिलसिला। नाटक के मध्य तक तेज गति बनाए रखी गई और दर्शकों ने खूब मजा लिया। नाटक के संवाद मनोरंजक हैं। नाटक के दूसरे हिस्से में नाटक की लंबाई उबाऊ लगने लगती है और नाटक की गति भी धीमी हो जाती हैं। नाटक में बाद में काफी दोहराव होते हैं। नाटक में सुमन अग्रवाल, अश्विन चड्डा, पूनम गिरधानी, हेमंत मिश्रा, रूमा घोष, अमिताभ श्रीवास्तव, मुक्ता सिंह, वामिक अब्बासी, शैलेन्द्र जैन और तबस्सुम ने बहुत अच्छा अभिनय किया। नाटक ने दर्शकों को आनंदित किया।
विवेचना के सोलहवें नाट्य समारोह में हर नाटक में एक स्वस्थ संदेश था। जबलपुर में परंपरा बन चुके इस समारोह का सफल समापन लगभग एक हजार दर्शकों की उपस्थिति में हुआ। विवेचना के इस समारोह में जहां मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों से रंगकर्मी नाटकों को देखने आए वहीं नाट्य समारोह के आयोजन का साक्षी बने अजित राय, संगम पांडेय और शिवकेश। नाट्य समारोह के अंत में विवेचना के सचिव हिमांशु राय और बांके बिहारी ब्यौहार व म प्र वि मंडल की ओर से श्री संतोष तिवारी ने सभी सहयोगियों, कार्यकर्ताओं और दर्शकों का आभार व्यक्त किया।

Saturday, September 26, 2009

विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह

विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 07 से 11 अक्टूबर तक
पांच श्रेष्ठ नाटकों का मंचन होगा
जबलपुर में परम्परा बन चुके विवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आयोजन इस वर्ष अक्टूबर माह में होने जा रहा है। इस आयोजन का यह सोलहवां वर्ष है। अब तक यह देश का अकेला आयोजन है जिसे अशासकीय तौर पर आयोजित किया जाता है और सन् 1994 से निरंतर आयोजित हो रहा है। जबलपुर के इस आयोजन की चर्चा अब पूरे देश में है और सभी निर्देशक व नाट्य संस्थाएं इसमें हिस्सेदारी करना चाहती हैं। विवेचना की इस समारोह श्रृखंला में सर्वश्री स्व. बा व कारंत, हबीब तनवीर, बंसी कौल, सतीश आलेकर, देवेन्द्रराज अंकुर, बलवंत ठाकुर, नादिरा बब्बर, उषा गांगुली, रंजीत कपूर, अरविंद गौड़ आदि वरिष्ठ नाट्य निर्देशकों के साथ ही इलाहाबाद, पटना, भोपाल, रायगढ़, भिलाई, उज्जैन आदि शहरों की नाट्य संस्थााओं के नाटकांें के मंचन हुए हैं। विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मंडल केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद व विवेचना का संयुक्त आयोजन है। यह समारोह तरंग प्रेक्षागृह, रामपुर में आयोजित होगा। इस वर्ष पांच दिवसीय समारोह में पांच नाटक मंचित होंगे।
विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 07 अक्टूबर से 11 अक्टूबर 2009 तक आयोजित है। ेविवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोह की तैयारियां प्रारंभ कर दी गई हैं। प्रथम दिन 7 अक्टूबर 2009 बुधवार को ’विवेचना’ जबलपुर के द्वारा मित्र नाटक मंचित किया जायेगा। डा शिरीष आठवले लिखित इस रोचक और भावनापूर्ण नाटक का निर्देशन वसंत काशीकर ने किया है। दूसरे दिन 8 अक्टूबर 2009 को महमूद फ़ारूखी के निर्देशन में दास्तानगोई मंचित किया जायेगा। उत्तर भारत में उर्दू में कथाकथन की पांच सौ साल पुरानी परंपरा है। दास्तानगोई में इसी फन का मुजाहरा किया गया है। 9 अक्टूबर को प्रसिद्ध निर्देशक बंसी कौल ,भोपाल के नाटक तुक्के पे तुक्का का मंचन होगा। यह नाटक अपने मजेदार प्रस्तुति के लिए चर्चित है। चैथे दिन 10 अक्टूबर को डा एम सईद आलम दिल्ली के निर्देशन में मिर्जा गालिब नाटक मंचित होगा। इस नाटक में प्रमुख भूमिका टाॅम आल्टर निबाहेंगे। इस नाटक के दुनिया भर में मंचन सराहे गये हैं। अंतिम दिन 11 अक्टूबर रविवार को रंजीत कपूर के निर्देशन में अफ़वाह नाटक का मंचन होगा। यह एक मनोरंजक नाटक है जिसमें मंच पर दो मंजिला सैट लगाया जाएगा। इस नाट्य समारोह में आमंत्रित दास्तानगोई, मिर्जा गालिब और अफवाह नाटकों के मंचन दुनिया भर में हुए हैं। इस समारोह में रंग प्रदर्शनी, रंगसंगोष्ठी, व रंगसंगीत का आयोजन भी होगा। नाट्य समारोह को कवर करने के लिए दिल्ली और मुम्बई से कला समीक्षक जबलपुर आ रहे हैं।
विवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोह की तैयारियां जोर शोर से जारी हैं। विवेचना के हिमांशु राय बांके बिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर, अनिल श्रीवास्तव, संजय गर्ग, सीताराम सोनी आदि ने सभी दर्शकों और शुभचिंतकांे से हमेशा की तरह नाट्य समारोह में सकिय भागीदारी का अनुरोध किया है।

Saturday, May 16, 2009

गुलाम अली मजबूर का निधन
कश्मीर के प्रसिद्ध रंगमंच निर्देशक, कलाकार और लेखक गुलाम अली मजबूर का 15 मई को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। श्री मजबूर ( 57 ) कश्मीरी लोक रंगमंच के अग्रणी कलाकार थे। उन्हांने 200 से अधिक नाटकों का निर्देशन किया और आकाशवाणी, दूरदर्शन और जम्मू कश्मीर के कला संस्कृति और भाषा अकादमी के ग्रेड के कलाकार रहे। कश्मीरी लोक रंगमंच और अभिनय कला को प्रोत्साहन देने वाले मजबूर को केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, राज्य कला, संस्कृति, एवं भाषा अकादमी, कश्मीर विश्वविद्यालय और जम्मू कश्मीर सरकार के शिक्षा विभाग ने पुरस्कृत और सम्मानित किया था। एक लेखक के रूप में उन्होंने पचास से अधिक नाटकों की रचना की और कश्मीरी साहित्य और भाषा के लिये अनेक लेख लिखे। स्तंभ लेखक के रूप में वे दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं से जुड़े रहे। श्री मजबूर कश्मीर के अग्रणी रंगमंच समूह राष्ट्रीय भांड रंगमंच के संस्थापक सदस्य थे।
हबीब तनवीर अब स्वस्थ
देश के वरिष्ठ रंगकर्मी हबीब तनवीर विगत सप्ताह अस्पताल में भरती रहे। वे गंभीर रूप से बीमार थे। उन्हें साँस लेने में तकलीफ हो रही थी। हालत बिगड़ती देख उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया। एक सप्ताह में उनकी बीमारी पर काबू पा लिया गया। हबीब साहब अब खतरे से बाहर हैं। उनकी बीमारी को लेकर देश के रंगकर्मी चिंतित थे। भोपाल में सभी कलाकार और साहित्यकार बुद्धिजीवी लगातार उनकी तबियत का हालचाल लेते रहे।
विवेचना, जबलपुर का थियेटर वर्कशाप
विवेचना जबलपुर का थियेटर वर्कशाप आगामी 13 जून से 12 जुलाई 2009 तक आयोजित है। यह वर्कशाप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली के सहयोग से आयोजित है। इस कार्यशाला का निर्देशन सुप्रसिद्ध अभिनेता निर्देशक श्री सुनील सिन्हा करेंगे। वर्कशाप 16 वर्ष से अघिक आयु के युवाओं के लिये है। वर्कशाप में नाटक के सभी पक्षों की जानकारी प्रशिक्षण दिया जायेगा। व्यायाम, तकनीकी विषयों आदि के लिये दो विषय विशेषज्ञ अलग से आयेंगे। श्री सुनील सिन्हा ने अनेक नाटकों का निर्देशन किया है और शेर अफगन जैसे नाटकों में अपने श्रेष्ठ अभिनय के लिये जाने जाते हैं। उन्होंने अनेक फिल्मों और टी वी सीरियल्स में स्मरणीय अभिनय किया है। उल्लेखनीय है कि सुनील सिन्हा विगत वर्ष जबलपुर में विवेचना, जबलपुर द्वारा आयोजित नाट्य कार्यशाला का निर्देशन कर चुके हैं।

Thursday, May 7, 2009

आगस्टो बोएल का निधन

रियो डी जनेरियो। अपनी अनोखी शैली के लिए विख्यात ब्राजीली रंगमंच निर्देशक और पटकथा लेखक अगस्टो बोएल का 78 साल की उम्र में निधन हो गया। रियो के अस्पताल समारितानो में लंबे समय से ल्यूकेमिया से पीड़ित बोएल का निधन 2 मई 2009 को सांस में परेशानी के बाद निधन हुआ। कोलंबिया विश्वविद्यालय से रंगमंच कला अध्ययन करने वाले बोएल ने 60 के दशक में पटकथा लेखक निर्देशक और अभिनेताओं के श्रोताओं से संवाद के लिए ’थियेटर आॅफ आप्रेस्ड’ बनाया था। सन् 1964 से 1985 के बीच ब्राजील के तानाशाही शासन ने उन्हें देश से निष्कासित कर दिया था।
विश्व रंगमंच दिवस 27 मार्च को इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट यूनेस्को द्वारा जो अन्तर्राष्ट्रीय संदेश जारी किया जाता है इस वर्ष 2009 के लिए यह संदेश आॅगस्टो बोएल द्वारा दिया गया था।

एकजुट का बच्चों का बच्चों का थियेटर वर्कशाॅप
एकजुट, मुम्बई द्वारा 7 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए मुम्बई में बांद्रा और लोखंडवाला में दो वर्कशाप 8 से 17 मई 2009 तक आयोजित हैं। इस 10 दिवसीय वर्कशाॅप में बच्चों व किशोरों को अभिनय, कथाकथन, थियेटर गेम्स, संवाद अदायगी, शब्द उच्चारण, चरित्र निर्माण, इम्प्रोवाइजेशन, संगीत व नृत्य का प्रशिक्षण दिया जायेगा। इस वर्कशाप में शामिल होने के लिए मोबाइल नं 9323738846 पर संपर्क किया जा सकता है।
लोहाकुट
बलवंत गार्गी के नाटक ’लोहाकुट’ का मंचन लिटिल थेस्पियन, कोलकाता द्वारा 6 मई 2009 को शिशिर मंच कोलकाता में किया गया। परिकल्पना व निर्देशन एस एम अज़हर आलम का था। यह कहानी 1944 में लिखी गई थी। इस नाटक में एक ग्रामीण महिला 18 साल के प्रेमविहीन वैवाहिक जीवन के बाद अपने पति को छोड़कर युवावस्था के प्रेमी के साथ जाने का फैसला करती है। इस निर्णय में उसकी लड़की का भी योगदान होता है जो पिता द्वारा तय गई पारंपरिक शादी तोड़कर अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है। नाटक में जीवन की निर्मम सचाई और यथार्थ को प्रदर्शित किया गया है।
पुस्तक प्रदर्शनी
केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली द्वारा मेघदूत रंगशाला, रवीन्द्रभवन नई दिल्ली में प्रदर्शनकारी कलाओं पर पुस्तक प्रदर्शनी व विक्रय आयोजित हुई। प्रदर्शनी 6 मई तक जारी रही।
अस्मिता, दिल्ली की कार्यशाला
अस्मिता, दिल्ली ने हैबीटैट वल्र्ड, इंडिया हैबिटैट वल्र्ड, नई दिल्ली में 9 मई से 5 जून 2009 तक एक थियेटर वर्कशाप का आयोजन किया है। इसमें 15 वर्ष से ऊपर के बच्चे और युवा शामिल हो सकते हैं। अभिनय पर केन्द्रित इस कार्यशाला का निर्देशन श्री अरविंद गौड़ करेंगे।
जंगलधूम डाट काम
एकजुट, मुम्बई द्वारा 1 मई को हार्नीमन सर्किल गार्डन, मुम्बई में बच्चों का नाटक ’जंगलधूम डाट काम का मंचन किया गया। हरियाला जंगल में एक नन्हीं कोयल रहती है जिसे उसकी मां स्वार्थवश एक कौवे के घोंसले में छोड़कर चली जाती है। कौवे की मां कागी नन्हीं कोयल सरगम की देखभाल करती है और उसे पालती पोसती है। बाजबहादुर जो जंगल का राजा है एक गायन प्रतियोगिता का आयोजन करता है। कागी सरगम को इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करती है। सरगम इस प्रतियोगिता को जीत लेती है। बुराई पर अच्छाई की विजय होती है।
नाटक क्षिप्रा शुक्ला ने लिखा है। नाटक का निर्देशन नादिरा बब्बर ने किया है।
पतझड़
डा एस एम अजहर आलम के निर्देशन में लिटिल थेस्पियन, कोलकाता ने 30 अप्रैल 2009 को ’पतझड़’ नाटक का प्रथम मंचन किया। यह नाटक टेनेसी विलियम्स की कथा पर आधारित है। यह एक परिवार की कहानी है जिसमें मां गायत्री, पुत्र इंदीवर और अपाहिज लड़की यामिनी है। यामिनी के मन में पति के रूप में एक टेलिफोन कंपनी में काम करने वाले नौजवान की कल्पना है। गायत्री चाहती है कि उसके बच्चे अच्छे से रहें। वो इंदीवर को यामिनी के लिये लड़का तलाश करने के लिये कहती रहती है। एक दिन एक लडका आता है जो बहुत अच्छा व्यवहार करता है। गायत्री को उम्मीद है कि वो यामिनी से शादी कर लेगा। लेकिन वो बताता है कि उसकी सगाई हो चुकी है। गायत्री के जीवन में जैसे पतझड़ आ
जाता है।
कागज के पक्षी
बैकस्टेज, इलाहाबाद ने प्रवीण शेखर के निर्देशन में ’कागज के पक्षी’ का मंचन 27 अपै्रल 2009 को किया। इसका रूपांतर देवेन्द्र प्रकाश सिंह ने किया है। यह एक जापानी लड़की सडाको की कहानी है जो 2 साल की थी जब हिरोशिमा पर बम गिराया गया। जब सडाको 12 साल की हुई तब पता चला कि अणुबम के दुष्प्रभाव से उसे ल्यूकेमिया हो गया है। उसकी मौत करीब है। उसे बताया गया कि जापानी लोकश्रुति के अनुसार यदि वह एक हजार कागज के पक्षी बनायेगी तो वह बच जायेगी। परंतु एक दिन जब वह 644 पक्षी ही बना पाई थी उसकी मृत्यु हो गई उसके साथी बच्चों ने उसके बाकी कागज के पक्षी बनाये। सडाको की याद में एक स्मारक बनाया गया है।
पेंसिल से ब्रश तक
25 व 26 अप्रैल 2009 को एकजुट, मुम्बई द्वारा पृथ्वी थियेटर में अपने प्रसिद्ध नाटक ’पेंसिल से ब्रश तक’ का मंचन किया गया। यह नाटक सुप्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के जीवन पर आधारित है। इसका निर्देशन नादिरा बब्बर ने किया है। इसमे टाॅम आल्टर प्रमुख भूमिका में हैं। यह नाटक 18 व 19 अप्रैल 2009 को एनसीपीए मुम्बई में मंचित हुआ। जबकि 16 व 17 अपै्रल 2009 को नादिरा बब्बर अभिनीत व निर्देशित नाटक ’बेगम जान’ का मंचन एनसीपीए में हुआ। यह गुजरे जमाने की शास्त्रीय गायिका की कहानी है।

Monday, April 27, 2009

विष्णु प्रभाकर


विगत 11 अपै्रल 2009 को वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर नहीं रहे। वे 97 वर्ष के थे। विष्णु प्रभाकर इप्टा के संरक्षक मंडल के सदस्य थे।
विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून 1912 को उŸार प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के मीरापुर गांव में हुआ था। उनके पिता दुर्गाप्रसाद एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनकी माता महादेवी परिवार की पहली पढ़ी लिखी महिला थीं जिन्होंने अपने घर में पर्दा प्रथा खत्म कर दी थी। बारह वर्ष की आयु में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद वे अपने मामा के घर हिसार चले गये। जहां उन्होंने मेट्रिक की पढ़ाई पूरी की। उसके बाद अठारह रूपये महीने पर सरकारी नौकरी शुरू की। इसी के साथ उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और प्रभाकर, हिन्दी भूषण, प्रज्ञा की परीक्षााओं के साथ अंग्रेजी में बी ए किया।
साहित्य में उनकी अभिरूचि शुरू से थीं उन्होंने हिसार में एक नाट्य संस्था में काम किया और सन् 1939 में अपना पहला नाटक ’हत्या के बाद’ लिखा। सन् 1938 में उनका विवाह सुशीला प्रभाकर से हुआ जिन्होंने सन् 1980 में अपनी मृत्यु तक उनका साथ निभाया। उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां हैं। उन्होंने सन् 1955 से 1957 तक आकाशवाणी नई दिल्ली में नाट्य निर्देशक के रूप में कार्य किया।
वे विष्णु नाम से लिखा करते थे। एक बार एक संपादक ने उनसे कहा कि इतने छोटे नाम से क्यों लिखा करते हो। तुमने कोई परीक्षा पास की है। उन्होंने कहा - प्रभाकर। तबसे उनका नाम विष्णु प्रभाकर हो गया।
विष्णु प्रभाकर को उनके उपन्यास अर्धनारीश्वर के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें भारत सरकार के द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। सन् 2005 में एक बार उनका सम्मान तब चर्चा में आया जब वे राष्ट्रपति से मिलने गये थे और उन्हें रास्ते में रोक लिया गया था। उन्होंने तब यह सम्मान वापस करने की घोषणा की थी।
वे मुख्य रूप से कथा लेखक थे। परंतु उन्होंने कविता के अलावा सभी विधाओं में लिखा। वे पहले मुंशी प्रेमचंद के लेखन से प्रभावित थे। बाद में शरतचन्द्र से प्रभावित रहे। उन्होंने 14 वर्ष तक यात्राएं कर सामग्री एकत्र की और शरतचन्द्र पर अमर उपन्यास लिखा ’आवारा मसीहा’। शरतचन्द्र की जीवनी को उन्होंने आवारा मसीहा में उपन्यास शैली में लिखा है। अपने लेखन और जीवन में वे महात्मा गांधी से प्रभावित रहे। उनके 8 उपन्यास, 19 कहानी संग्रह, 12 नाटक, 13 जीवनियां और संस्मरण पुस्तकें, दो निंबध पुस्तकें, 23 बच्चों की किताबें, 4 यात्रा संस्मरण, 15 विविध विषयों पर लिखी पुस्तकें प्रकाशित हैं।
स्व विष्णु प्रभाकर इप्टा से शुरूआती दौर से जुड़े थे। सन् 1957 में जब इप्टा का राष्ट्रीय सम्मेलन दिल्ली में हुआ तो वे स्वागत समिति के कोषाध्यक्ष और सम्मेलन के प्रमुख कार्यकर्ता थे। वे इप्टा के संरक्षक मंडल के सदस्य थे। विगत वर्ष अपने हस्तलिखित पत्र द्वारा उन्होंने इप्टावार्ता को शुभकामनाएं दी थीं।
विष्णु प्रभाकर जी का दाह संस्कार नहीं हुआ क्योंकि मृत्यु से काफी पूर्व उन्होंने अपनी देह आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस (एम्स) को दान कर दी थी। उनकी मंशा के अनुसार उनकी देह मेडिकल छात्रों के अध्ययन के काम आएगी।
भारतीय जननाट्य संघ इप्टा इस महान लेखक को भावभीनी श्रद्धांजली अर्पित करती है।

Thursday, April 23, 2009

अन्तर्राष्ट्रीय संदेश

विश्व रंगमंच दिवस: 27 मार्च 2009
प्रसिद्ध पुर्तगाली नाट्य निर्देशक आगस्टो बोएल का अन्तर्राष्ट्रीय संदेश
सभी मानव-समाज अपने रोजमर्रा के जीवन में नाटकमय हैं और विशेष क्षणों में नाटक प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक संगठन के रूप में वे नाटकमय होते हैं और वैसे ही नाटक प्रस्तुत करते हैं जैसे आप देखने आते हैं।
कोई जाने या न जाने, इन्सानी रिश्ते नाटकीय ढंग से बुने हुए होते हैं। स्थान, देहभाषा का इस्तेमाल, शब्दों और आवाज के उतार-चढ़ाव का चयन, विचारों और संवेगों की टकराहट - जो कुछ भी मंच पर हम दिखाते हैं, उसे अपने जीवन में जीते हैं। हम खुद रंगमंच हैं।
विवाह और अन्तिम संस्कार ही नहीं बल्कि रोजमर्रा के हमारे चिर-परिचित रीति-रिवाज भी नाटकमय होते हैं, चाहे सचेतन रूप से हमें इसका एहसास न हो। तड़क-भड़क और विभिन्न घटनाओं के अवसर, सुबह की काॅफी, प्रातःकालीन अभिवादन, शर्मीला प्यार और उŸोजना के तूफान, संसद का सत्र या राजनयिक मुलाकात-सब रंगमंच है।
हमारी कला के मुख्य कार्याें में से एक है लोगों को रोजमर्रा के जीवन के ’नाटकों’ के प्रति संवेदनशील बनाना, इन ’नाटकों’ में अभिनेता खुद दर्शक होते हैं, इन प्रस्तुतियों मंें मंच और दर्शक दीर्घा एक हो जाते हैं। हम सभी कलाकार हैं। रंगकर्म करते हुए हम वह सब देखना सीखते हैं, जिसे आम तौर से देख नहीं पाते क्योंकि उस पर ऊपरी दृष्टि डालने के ही आदी हैं। जो हमारा जाना-पहचाना है, वह अनदेखा बना रहता है: रंगकर्म का मतलब है रोजमर्रा के जीवन के मंच पर प्रकाश डालना।
पिछले सितम्बर में हम एक नाटकीय उद्घाटन से अचम्भित रह गये-हम, जो सोचते थे कि युद्धों, नरसंहार, कत्लेआम के बावजूद एक सुरक्षित दुनिया में रहते हैं। सोचते थे कि ये सब चीजें हैं जरूर लेकिन दूर-दराज के जंगली इलाकों में। हम अपने धन को किसी सम्मानित बैंक में जमा कर या स्टाक एक्सचेंज में किसी व्यापारी को सौंपकर आश्वस्त थे कि हमसे कहा गया कि इस धन का अस्तित्व ही नहीं, यह तो हवाई था। यह कुछ अर्थशास्त्रियों का नकली आविष्कार था, जो स्वयं नकली नहीं थे लेकिन विश्वसनीय और ईमानदार भी नहीं थे। यह सब किसी बुरे थियेटर की तरह था, ऐसा विषादभरा कथानक, जिसमें कुछ लोगों ने काफी कुछ जीत लिया और ज्यादातर लोगों ने सब खो दिया। धनी देशों के राजनीतिज्ञों ने गुप्त बैठकें कर कुछ जादुई हल ढ़ंूढ लिये और इन निर्णयों के शिकार हम बालकनी की आखरी पंक्ति के दर्शक ही बने रह गये।
बीस वर्ष पहले मैंने रियो द जेनेरियो का ’पेद्रे’ मंचित किया था। मंच सज्जा दीन-हीन थी, जमीन पर बिछी खालें और चारों तरफ बांस। हर प्रस्तुति से पहले मैं अपने अभिनेताओं से कहती थी: ’जो कल्पनालोक हम रोज़ रोज़ रचते थे, वह खत्म हो गया। इन बांसों के पार जाते ही तुममें से किसी को भी झूठ बोलने का अधिकार नहीं होता। रंगमंच छिपा हुआ सच है।’
जब हम अपनी प्रस्तुतियों के परे झांकते हैं तो शोषकों और शोषितों को देखते हैं: सभी समाजों, नृवंशी समूहों, लिंगों, सामाजिक वर्गों और जातियों मंें हमें अन्यायी और क्रूर दुनिया दिखायी देती है। हमंें एक दूसरी दुनिया की रचना करनी है क्योंकि हम जानते हैं कि यह सम्भव है। लेकिन यह हम पर ही है कि ऐसी दुनिया अपने हाथों से और रंगमंच व अपने जीवन में अभिनय करते हुए बनायें।
इस ’नाटक’ में हिस्सा लीजिये, जो शुरू होने को है और जैसे ही आपकी घर वापसी हो, अपने दोस्तों के साथ खुद के नाटकों का अभिनय कीजिए, फिर आप वह सब देख सकेंगे, जो पहले कभी न देख पाये-वह सब जो प्रत्यक्ष है। नाटक एक आयोजन भर नहीं है, यह जीने का ढंग है।
हम सब अभिनेता हैं: नागरिक होने का अर्थ समाज में रहना नहीं, उसे बदलना है।
इन्टरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट (यूनेस्को), पेरिस द्वारा जारी तथा भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी द्वारा प्रसारित

Wednesday, April 22, 2009

विवेचना जबलपुर का 15 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह विचारोत्तेजक नाटकों का समारोह

विवेचना जबलपुर का 15 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह
विचारोत्तेजक नाटकों का समारोह
विवेचना, जबलपुर का 15 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह विगत 5 नवंबर से 9 नवंबर 2008 आयोजित हुआ। इस समारोह ने अपनी निर्बाध निरंतरता से देश में एक अलग स्थान बनाया है। विवेचना के नाट्य समारोह में देश के सभी प्रमुख नाट्य निर्देशकों और नाट्य संस्थाओं ने अपने नाटकों के प्रदर्शन किये हैं। सर्वश्री हबीब तनवीर, बा.व.कारंत, बंसी कौल, सतीश आलेकर, देवेन्द्रराज अंकुर नादिरा बब्बर, दिनेश ठाकुर, दर्पण मिश्रा, उषा गांगुली, देवेन्द्र पेम, अरविंद गौड़, पियूष मिश्रा, रंजीत कपूर,, अनिलरंजन भौमिक, बलवंत ठाकुर, श्रीमती गुलबर्धन, अलखनंदन, लईक हुसैन, अशोक राही, विवेक मिश्र अजय कुमार, और वसंत काशीकर जैसे प्रमुख नाट्य निर्देशकों के नाटक पिछले 15 वर्षों में मंचित हुए हैं। 15 वर्षों में 78 नाटकों के मंचन हो चुके हैं। अनेक निर्देशकों ने एक से अधिक बार इस नाट्य समारोह में अपने नाटकों के मंचन किये हैं। इन नाटकों को हजारों दर्शकों ने देखा है। इन नाट्य समारोहों से एक बड़ा दर्शक वर्ग पैदा हुआ है जो हर नाटक को देखने की इच्छा रखता है। जबलपुर में आज विवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोह के नाटकों को देखने के लिये प्रतिदिन आठ सौ दर्शक आते हैं। तरंग प्रेक्षागृह जहां ये नाटक होते हैं वो एक आलीशान एसी आॅडीटोरियम है जिसमें नाटक देखने और नाटक करने में सभी को संतोष मिलता है।
विवेचना ने इस बार मानव कौल को उनके दो नाटकों के साथ आमंत्रित किया था। 5 व 6 नवंबर को क्रमशः शक्कर के पंाच दाने और इल्हाम नाटकों का मंचन हुआ। शक्कर के पांच दाने एकल नाटक है जिसमें कुमुद मिश्रा का एकल अभिनय है। मानव कौल की नाट्य संस्था अरण्य द्वारा मानव कौल के द्वारा लिखे नाटकों का मंचन किया जाता है। शक्कर के पंाच दाने में राजकुमार नाम का पात्र इस दुनिया में जीने में अपने आपको असमर्थ पाता है। उसे यह दुनिया ही अजीब लगती है। नाटक में लेखक ने राजकुमार नाम के एक अनोखे चरित्र की रचना की है। उसकी मंा, उसका कवि चाचा, उसका ट्रक वाला दोस्त, उसका स्कूल हीरो रघु , बुजुर्ग राधे ही हैं जिनपर वो विश्वास कर पाता है। राजकुमार अपनी कहानी कहता है और साथ ही दुनिया में रहने वाले हर व्यक्ति और उसकी विशेषताओं और कमियों का जिक्र करता है। मानव कौल ने साहित्य, दर्शन और आध्यात्म के अध्ययन के दौरान जो पाया है उसे अपने नाटकों में पिरोया है। इसीलिये नाटक की बहुत सी बातें प्रभावित तो करती हैं पर किसी मंजिल पर नहीं पंहुचतीं। दोनों ही नाटक कहीं प्रयोगात्मक और एब्सर्ड हो जाते हैं। जब लेखक निर्देशक ही अपने कथ्य के बारे में स्पष्ट न हो तो दर्शक को क्या संप्रेषित हो सकता है? दोनों नाटक अंततः क्या कहना चाहते हैं वो स्पष्ट नहीं हो पाया। शक्कर के पांच दाने में कुमुद मिश्रा अपने चेहरे और आवाज के लोच से ज्यादा कह पाते हैं पर इल्हाम में उन्हें ये सुविधा भी नहीं मिली। नाटक संवाद और अभिनय का माध्यम तो है ही, ये निर्देशक के अपने विचारों का मंच भी है। मानव कौल इस मंच का बहुत न्यायपूर्ण इस्तेमाल इन नाटकों में नहीं कर पाये। दूसरा नाटक इल्हाम है। नाटक के नायक भगवान का,े जो एक बैंक में काम करने वाला सामान्य पारिवारिक आदमी है एक दिन पार्क में बैठे बैठे ज्ञान प्राप्त हो जाता है। वो अपनों को पहचान नहीं पाता। और अजीब अजीब बातें और हरकतें करता है जिससे बहुत मनोरंजक परंतु विचारणीय स्थितियों का निर्माण होता है। भगवान की बातें किसी की समझ में नहीं आतीं और लोगों की बातें भगवान की समझ में नहीं आतीं। नाटक के अंत में भगवान सामान्य हो जाता है। इल्हाम में प्रयोगात्मकता और अमूर्तता कुछ ज्यादा ही थी।
विवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोह के तीसरे दिन अलखनंदन के निर्देशन में नटबंुदेले भोपाल ने रामेश्वर प्रेम के नाटक चारपाई का मंचन किया। चारपाई मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है जिसमें रिटायर्ड बूढे के लिये घर में रहने को भी जगह नहीं है। मां एक लाचार जीवन जीने को अभिशप्त है। लड़कों की अपनी समस्याएं हैं और बहुओं बच्चों की अपनी। नाटक में निर्देशक ने एक सतत उदासी, विषाद का निर्वहन किया है। प्रकाश बहुत सीमित रखा गया है। पूरा नाटक रात के अंधरे में चलता रहता है। नाटक में एक अजब सुस्ती का आलम है जो दर्शक को झुझला देता है। मां के रोल में बिशना चैहान ने कुछ अच्छा करने की कोशिश की जबकि पिता के रूप में जावेद जैदी केवल खानापूरी करते नजर आए। अन्य पात्र भी केवल मंच पर थे। मंच पर नाटक का सैट बहुत असुविधाजनक था और नाटक करने वालों की दिमागी उलझन को अभिव्यक्त कर रहा था। नाटक में बहुत अच्छे संगीत का इस्तेमाल किया गया जो नाटक से बिल्कुल बेमेल था।
चैथे दिन अस्मिता दिल्ली द्वारा अरविंद गौड़ के निर्देशन में अनसुनी का मंचन किया गया। अनसुनी उन लोगों की कहानी है जिनकी संख्या करोड़ों में है परंतु जिनकी आवाज अनसुनी है। यह नाटक हर्षमंदर के उपन्यास अनहर्ड वाइसेस पर आधारित है। इसमें पांच कहानियांे का मंचन है जिनमें हर कहानी किसी एक खास व्यक्ति और वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। कुष्ठ रोगी, साम्प्रदायिक दंगों को भुगतती एक महिला, सिर पर मैला ढोने वाली औरत, सड़कों पर पलते बच्चे और आदिवासी लोगों की समस्याओं को इस नाटक में आवाज दी गई है। नाटक में पांच छोटी छोटी कहानियांे को मंचित किया गया है। कहानियां बहुत छोटी होने से बहुत असरदार बन पड़ी हैं। हर कहानी के मंचन के बाद सूत्रधार न रखकर 28 नर्तकों के साथ एक सामयिक गीत बहुत आधुनिक तरीके से प्रस्तुत किया गया जिसका परिणाम ये हुआ कि नाटक दर्शकों द्वारा बहुत पसंद किया गया।
अंतिम दिन रविवार की सुबह 10 बजे अस्मिता के दूसरे नाटक आपरेशन थ्री स्टार का मंचन हुआ। सुबह ठीक दस बजे लगभग 600 दर्शक नाटक देखने आ चुके थे। ये इस बात का प्रदर्शन था कि दर्शकों में नाटक देखने के लिये कितना उत्साह है। इसके पूर्व भी तेरहवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह में प्रातःकालीन मंचन आयोजित किया गया था जिसे बहुत पसंद किया गया था। आपरेशन थ्री स्टार डाॅरियो फो के नाटक एक्सीडेंटल डेथ आॅफ एन एनार्किस्ट का रूपांतर है। यह नाटक बहुमंचित हैं और पुलिस व कानून की कारगुजारियांे को बेनकाब करता है। नाटक में अरविंद गौड़ ने बहुत तेज गति रखी है। नाटक बहुत रोचक है। नाटक में लेखक ने दो अंत रखे हैं। नाटक का अंत बहुत कुछ कहता है। नाटक को सामयिक बनाने के लिये निर्देशक अरविंद गौड़ ने कुछ संवाद रखे हैं।
नाट्य समारोह के अंतिम दिन 9 नवंबर को शाम विवेचना ने अपना स्वयं का नाटक वसंत काशीकर के निर्देशन में मंचित किया। शाहिद अनवर के नाटक सूपना का सपना के इस प्रथम मंचन को दर्शकों ने पसंद किया। नाटक एक गांव की कहानी है जहां गांव के प्रमुख बाबू साहब एक कालकोष गाड़ने जा रहे हैं जिसमें उनके परिवार की जानकारी डाली जा रही है। गांव का भोला भाला युवक सूपना यह मांग कर बैठता है कि कालकोष में गांव के लोगों का विवरण भी डाला जाना चाहिये। इसी बात से तकरार शुरू होती है जो समाज में गैरबराबरी को अभिव्यक्त करती है। निर्देशक वसंत काशीकर ने नाटक में कसावट पर बहुत ध्यान रखा। नाटक में अंतर्निहित संदेश को बहुत रोचकता से संप्रेषित किया गया है। सूपना का सपना को समारोह को दर्शकों ने समारोह का सबसे अच्छा नाटक माना।
विवेचना का पन्द्रहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह विचारोत्तेजक नाटकों का समारोह रहा। नाटक का उद्घाटन जबलपुर जिले के कलेक्टर श्री हरिरंजन राव और म प्र वि मं के श्री संतोष तिवारी ने दीप जलाकर किया। शुरूआत में विवेचना के उपसचिव श्री बांकेबिहारी ब्यौहार ने नाट्य समारोह के आयोजन के बारे में बताया। विवेचना के सचिव श्री हिमंाशु राय ने देश में नाटकों की स्थिति और इस समारोह में नाटकों के चयन के संबंध में बताया। 15 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह विवेचना व केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद म प्र विद्युत मंडल का संयुक्त आयोजन था। विवेचना ने म प्र विद्युत मंडल के सहयोग के लिये आभार व्यक्त किया है। विवेचना ने जबलपुर शहर के दर्शकों और दानदाताओं का आभार व्यक्त किया।

Sunday, April 19, 2009

शुरूआत

इप्टावार्ता हिंदी का ब्लाग इस पोस्ट के साथ शुरू हो रहा है। इस ब्लाग में आप इप्टावार्ता के अंक पढ़ सकेंगे। इप्टा ही नहीं देश की सभी रंग संस्थाओं की गतिविधियों की जानकारी इप्टावार्ता हिंदी में उपलब्ध रहेगी।