Sunday, December 6, 2009

आदिविद्रोही नाट्य समारोह भोपाल में विवेचना का नाटक ’आंखों देखा गदर’ सराहा गया

स्वराज संस्थान, भोपाल द्वारा प्रतिवर्ष आदि विद्रोही नाट्य समारोह का आयोजन भोपाल में किया जाता है। इस समारोह में आदिवासी जननागरण के नायकों और विद्रोह की परंपरा में सदियों से अपनी आहुति देने वाले चरित्रों पर केन्द्रित नाटकों का मंचन किया जाता है। इस वर्ष विवेचना, जबलपुर को समारोह में आमंत्रित किया गया। 4 दिसंबर 2009 को विवेचना ने वसंत काशीकर के निर्देशन में ’आंखो देखा गदर’ नाटक का मंचन किया। आंखो देखा गदर स्व अमृतलाल नागर की रचना है। यह मराठी पुस्तक माझा प्रवास का हिन्दी रूपांतर है। सन् 1857 के विद्रोह के समय पुणे का एक ब्राह्मण विद्रोह के इलाके में घूम रहा था। उसने गदर आंखों से देखा। पुणे लौटकर उसने आंखों देखा गदर लिपिबद्ध किया और इस तरह ’माझा प्रवास’ अस्तिस्त में आया। इस पुस्तक में इन्दौर, महू, धार, उज्जैन, ग्वालियर, झांसी, कानपुर, लखनऊ और बनारस का बहुत विस्तृत और रोचक विवरण है। पुस्तक के लेखक विष्णुभट्ट गोडशे वरसईकर झांसी में रानी लक्ष्मीबाई को साक्षात देखा उनसे कई बार मिले, झांसी नगरी को घूमा। रानी झांसी का शासन और न्याय करने का तरीका, उनका रहन सहन बोलचाल और वेशभूषा उनकी सवारी सबकुछ का विवरण इस पुस्तक में है। इस पुस्तक के रानी झांसी के अंश को आंखो देखा गदर नाटक में प्रस्तुत किया गया है। महाराष्ट्र के सांगली जिले के बुधगांव की मंडली को पोवाड़ा शैली में नाटक को मंचित करने के लिए आमंत्रित किया गया। शाहीर अवधूत बापूराव विभूते और उनके साथियों की मंडली ने बहुत ही दमदार संगीत और आवाज के साथ जो पोवाड़ा शैली की ख़ासियत है आंखो देखा गदर हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया। नाटक का इतना सशक्त प्रस्तुतिकरण था कि दर्शक अभिभूत हो गये। दर्शकों ने कहा कि उन्हें शाहीर अमरशेख की याद आई। नाटक में सूत्रधार का किरदार संजय गर्ग ने निभाया। निर्देशक वसंत काशीकर ने बताया कि इस नाटक के अगले मंचनों में कई नए चरित्रों, घटनाओं को जोड़ा जाएगा। नाटक के डिज़ायन में परिवर्तन किये जाएंगे। है।
निर्देशकीय
सन् 1857 के गदर के 150 साल पूरे हो चुके हैं। आज का समय घटनाओं के विश्लेषण का समय है। यह समय 1857 की घटनाओं के विश्लेषण का समय है। इसीलिये आज 1857 एक बार फिर जाग उठा है। उसका पुनरावलोकन हो रहा है। बहुत से ऐतिहासिक तथ्य सामने हैं। पर आंखो देखा हाल विरल है। कुछ अंगे्रजों ने आंखों का देखा लिखा है। पर हिन्दी और भारतीय भाषाओं में यह दुर्लभ है। जब हम 1857 के बारे में जानना चाहते हैं तो बहुत कम जान पाते हैं। ऐसे समय में विष्णु भट्ट गोडशे वरसईकर की मराठी पुस्तक ’माझा प्रवास’ का हिन्दी रूपांतर आंखों देखा गदर के रूप में जब हाथ आता है तो अचानक ही हम धनवान हो उठते हैं। लगता है कि जैसे हम कोई फिल्म देख रहे हैं। पुस्तक चित्रपट के रूप में एक सूत्र में बंधी हुई चलती है। हर दृश्य, हर घटना का वर्णन बहुत सजीव और मार्मिक है। लक्ष्मीबाई के शौर्य, झांसी की लड़ाई और गदर का इतना सुंदर वर्णन शायद की कहीं पढ़ने को मिल सकेगा। इस किताब का अनुवाद अमृतलाल नागर ने किया है। नागर जी ने कहा भी है कि मूल किताब की भाषा इतनी सरल और रोचक है कि उन्हें अनुवाद में इसे बरकरार रखना एक चुनौती रहा।
’माझा प्रवास’ की मराठी पृष्ठभूमि के कारण इसके मंचन के लिये ऐसा तरीका तलाश किया जाना था जो बेहतर संप्रेषण कर सके, कृति के साथ न्याय भी कर सके और इसी तलाश में महाराष्ट्र की प्रख्यात लोकशैली पोवाड़ा सहायक बनी। ऐतिहासिक और राष्ट्रीय नायकों के चरित्र का वीर रस पूर्ण गायन पोवाड़ा महाराष्ट्र की लोकप्रिय और प्रभावी शैली है। लोकजागरण हेतु इसका ऐतिहासिक प्रयोग हुआ है। अन्नाभाउ साठे, अमर शेख संजीवन, शंकरराव निकम आत्माराम पाटिल जैसे पोवाड़ा के महान प्रस्तोता हुए हैं।
पोवाड़ा का इतिहास लगभग 400 वर्ष पुराना है। समाज के गुण दोष दिखाने और लोक जागरण के लिए पोवाड़ा का जन्म हुआ। वीररस पोवाड़ा की आत्मा है। यह इसका स्थायी भाव है। साथ ही श्रंृगार, हास्य, करूणा इसके पूरक तत्व हैं। वीर रस का पोवाड़ा और श्रृंगार रस की लावणी ये एक ही शरीर के दो हाथ हैं। पोवाड़ा का प्रमुख विषय शिवाजी रहे हैं।
मराठी काव्यधारा को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। संत कवि जो इहलौकिक विषयों पर लिखें, पंत कवि जो बौद्धिक विषयों पर लिखें और तंत कवि जो लोक विषयों पर लिखें। पोवाड़ा गायक को गांेधाली या शाहीर कहा जाता है। सन् 1857 के गदर का जो आंखो देखा हाल विष्णु भट्ट गोडसे वरसईकर ने माझा प्रवास में लिखा उसे दर्शकों तक पंहुचाने के लिए सांगली जिले के बुधगांव के शाहीर अवधूत बापूराव विभूते और उनके साथियों का सहयोग मिला और पोवाड़ा जैसी सशक्त लोकशैली के माध्यम से यह संभव होने से वह रोचक और ऐतिहासिक बना।
कथ्य
मुम्बई के ठाणे जिले के वरसई के निवासी वेदशास्त्र संपन्न विष्णुभट्ट शास्त्री गोडशे पेशे से पुरोहित भिक्षुक ब्राह्मण थे। गरीबी और कर्ज से मजबूर होकर उन्होंने ग्वालियर की रानी द्वारा मथुरा में आयोजित एक महायज्ञ में भाग लेकर मोटी दक्षिणा पाने के लिए लंबी यात्रा की। यात्रा काल वही था जब देश गदर के दौर से गुजर रहा था। उन्होंने यात्रा के दौरान जो गदर देखा उसका बहुत सटीक वर्णन किया है। उन्होंने वरसई से पुणे, नगर, सतपुड़ा वन्य प्रदेश, इंदूर, मउ, उज्जैन, धार, सारंगपुर, ग्वालियर, झांसी, कानपुर लखनऊ, काशी और फिर वापस वरसई तक की यात्रा की। दृव्यार्जन की लालसा से गदर के ही क्षेत्र में उन्हें पैदल सफर करना पड़ता था। गोरों की बंदूकों से बार बार उनका सामना हुआ करता था। उन्होंने मानवता और दानवता के दृश्य साथ साथ देखे थे। आम जनता अंग्रेजों से भय और घृणा करती थी और दिल से चाहती थी कि अंग्रेज इस देश को छोड़कर चले जाएं। आंखों देखा गदर आम जन की आंख से इस घटना को देखता है। इस प्र्रस्तुति में ’माझा प्रवास’ का वो अंश लिया गया है जो रानी झांसी लक्ष्मीबाई और उनके क्षेत्र में हुए गदर से संबंधित है। पूरी पुस्तक का दायरा बहुत बड़ा है और कई खंडों में काम की मांग करता है।

मंच पर
सूत्रधार वसंत काशीकर/संजय गर्ग
प्रमुख गायक/शाहीर अवधूत बापूराव विभूते
सहायक मार्शल सज्जन मोरे
बजरंग बापूसो अब्दागीरे
बालासाहेब पाटील
शुभम अवधूत विभूते
नारायण दादू पाटील
ओंकार अवधूत विभूते
मंच परे
ध्वनि प्रकाश हिमांशु राय
मूल पुस्तक माझा प्रवास
लेखक विष्णुभट्ट गोडशे वरसईकर
हिन्दी रूपांतर अमृतलाल नागर
नाट्य रूपांतर वसंत काशीकर, अवघूत बापूराव विभूते
प्रस्तुति प्रबंधन बांकेबिहारी ब्यौहार
प्रस्तुति परिकल्पना एवं निर्देशन वसंत काशीकर
नाट्य दल 13 कलाकारों का है और अवधि 1 घंटा 15 मिनिट है।