Friday, November 20, 2009

वामिक जौनपुरी जन जागरण सांस्कृतिक यात्रा (2-4 नवम्बर 2009, आजमगढ़ से जौनपुर)


उर्दू के अवामी षायर वामिक जौनपुरी ने अपनी वसीयत कुछ यूँ लिखीः-
‘‘ये इंकलाब है किश्तेरे अवाम का हासिल
हमें न भूलना जब मुल्क में हो वो दाखिल
मेरे भी नाम से दो फूल उसके बैरक पर
मेरी तरफ से भी दो नारे उसकी रौनक पर’’
इस नाउम्मीद से समय में वामिक की षायरी उम्मीद की एक किरण के रूप में अंधेरी राहों को रोषन करती है। समूचा प्रगतिषील सांस्कृतिक आन्दोलन वामिक का ऋणी है। कैफी के षब्दों में
‘‘कोई तो कर्ज चुकाये कोई तो जिम्मा ले
उस इंकलाब का जो आज भी उधार सा है’’
इस कर्ज को चुकाने की जिम्मेदारी तो अवाम पर है लेकिन उसे इस जिम्मेदारी के लिए तैयार करने का काम तो संगठनों का है। ‘इप्टा’, प्रगतिषील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच और कलम नाट्य मंच ने 2 नवंबर से 4 नवंबर 2009 तक कैफी के आजमगढ़ से वामिक के जौनपुर तक दर्जनों गावों-कस्बों में अपने गीतों-नाटकों के जरिये वामिक जौनपुरी के इंकलाब के संदेष को आम अवाम तक पहुँचाने की कोषिष की।
वामिक जौनपुरी के ‘जन्म षताब्र्दी’ साल में ‘भूखा है बंगाल रे साथी’ जैसे अमर गीत के रचयिता वामिक की आवाज हमारे गीतों, नाटकों में उसी तरह थी जैसे फैज ने कहा थाः-
क्या जुल्मतों के बाद भी गीत गाये जायेंगे,
हाँ जुल्मतों के दौर के ही गीत गाये जायेंगे’
1942-43 में बंगाल में ब्रिटिष साम्राज्यवाद द्वारा निर्मित अकाल के लाखों पीड़ितों के लिए देष भर के कलाकार अकाल पीड़ितों के लिए राहत सामग्री जुटाने निकल पडे़ थे। 1943 में बंगाल में खाद्यान्न की कमी नहीं थी लेकिन लोग भूखों मर रहे थे, आज देष खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर है लेकिन अन्न उपजाने वाले लाखों किसान आत्महत्या के लिए अभिषप्त हुए हैं, पर क्या हम लेखक-कलाकारों को इन हत्याओं ने क्या उतना झकझोरा है जितना अखबारों में छपी बंगाल के अकाल की खबरों ने जौनपुर में वामिक को झकझोरा था। वामिक अखबार में छपी खबरें पढ़ कर कलकत्ता पहुँच गये और वहाँ उन्होंने तबाही का जो मंजर देखा उस पर ‘‘भूखा है बंगाल रे साथी भूखा है बंगाल’’ जैसी तारीखी नज्म लिखी।
हर उस बस्ती में हर उस गाँव में, जहाँ कोई भूख से, कर्ज से,षोशण से मरा हो, पहुँचने का जज्बा और हौसला तो अभी हम नहीं बना सके हैं पर शिवली एकेडेमी में वामिक को, उनकी षायरी को याद करते हुए राहुल की जन्मस्थली ‘पन्दहा’ पर कुछ देर का पड़ाव और फिर अनेक स्थानों पर वामिक के बहाने हम यह समझ सकेः-
‘तुम्ही ने नजरूल, निराला, मखदूम जैसों को अपना गम दिया है,
तुम्हीं ने दानिषवरों को अपने षाऊर का जामे जम दिया है,
तुम्हीं ने सेहाफियों को बला का ज़ोरे कलम दिया है,
तुम्हीं ने अपनी हसीन तहजीब को लचकता कदम दिया है’’
‘कला की असली नायक जनता है’ आज भी हमारे गीतों और नाटकों में यह केन्द्रीय तत्व है जिसे हमने वामिक जैसे पूर्वजों से लिया है और इसे ही पुख्ता करने के लिए हम 2 नवंबर 2009 को आजमगढ़ में इक्टठा हुए।
2 नवंबर 2009
अपरान्ह 2 बजे षिवली एकेडेमी के हाॅल में ‘वामिक जौनपुरी की विरासत’ पर आयोजित संगोष्ठी के साथ इस यात्रा की वैचारिक षुरूआत हुई। इलाहाबाद विष्वविद्यालय के उर्दू विभाग के अध्यक्ष, प्रगतिषील लेखक संघ से जुडे़ जाने-माने समालोचक अली अहमद फातमी ने वामिक को कबीर और नजीर की परम्परा का षायर बताते हुए कहा कि वामिक की षायरी में हिन्दी-उर्दू का भेद मिट जाता है। उन्होंने कहा कि 1943 में बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए वामिक ने नज्म सिर्फ लिखी नहीं बल्कि उसे लेकर वह खुद सड़कों पर उतरे। उन्होंने वामिक के हवाले से कहा कि वामिक कहते थेः-
‘मसला यह नहीं कि मसलों का हल कौन करे,
मसला यह है कि इसकी पहल कौन करे’
इस अवसर पर ‘इप्टा’ के राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र रघुवंषी ने संस्कृतिकर्मियों का आह्वान किया कि आज जिस तरह साहित्य-संस्कृति को हाषिये पर धकेल कर उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है, सुनहले सपनों की चकाचैंध से जनता को भरमाया जा रहा है, उससे आम अवाम को आगाह करने के लिए लेखकों-कलाकारों को कबीर, नजीर, प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, कैफी, वामिक, मखदूम जैसे अदीबों की रचनाओं के साथ जनता के बीच जाना होगा।
इप्टा के प्रान्तीय महामंत्री राकेष ने कहा कि वामिक की विरासत से आम अवाम के सुख दुख में षामिल होने की विरासत है। उन्होंने वामिक के हवाले से कहाः-
‘तुम्हारे हल बैल ने हमारे कलम को षाइस्तगी अदा की,
तुम्हारी गुरबत ने हमको फिक्रे नजर की जरजस्तगी अदा की’
हमारी तखलीक को तुम्हारे ख्याल ने बालो पर दिये हैं
हमारी तहरीक को तुम्हारी कुदाल ने रहगुजर दिये हैं’
इप्टा रायबरेली के प्रान्तीय महामंत्री तथा इप्टा के प्रान्तीय मंत्री संतोष डे ने कहा कि हमारी पीढ़ी के संस्कृतिकर्मी वामिक की विरासत से जुड़कर गौरवान्वित हैं और उनकी षायरी से हमारी हौसला अफजाई होती है। आजमगढ़ के संस्कृतिकर्मी तहसीन खाँ ने कहा कि वामिक जौनपुरी की षायरी समूचे प्रगतिषील सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रकाष स्तम्भ है। हम उनकी कल की रचनाओं की रोषनी में अपना आज संवारने निकले हैं।
गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे षिवली एकेडेमी के एसोसिएट डायरेक्टर उमर सिद्दीकी ने कहा कि षिवली एकेडेमी से वामिक जौनपुरी की यात्रा की षुरूआत अंधेरे दौर में रोषनी की षुरूआत है। उन्होंने कहा-जिस तरह मौलाना षिवली ने इल्म का रिष्ता अवाम से जोड़ा उसी तरह वामिक जैसे षायरों ने षायरी को अवाम से जोड़ा।
षिवली कालेज के उर्दू के विभागाध्यक्ष डाॅ षबाबुद्दीन ने कहा कि उन्हें इस बात पर फक्र है कि उनके निर्देषन में षिवली कालेज में वामिक की षायरी पर षोध किया गया है। उन्होंने तरक्कीपसंद तहरीक के योगदान पर चर्चा करते हुए कहा कि अवाम से जुड़कर ही वामिक, कैफी, साहिर, फैज जैसे ष्षायरों ने हुस्न को एक नया मयार दिया और इन्सानियत के झंडे को बुलन्द किया।
गोष्ठी का संचालन इप्टा आजमगढ़ के संरक्षक, आजमगढ़ जनपद में जनान्दोलनों के जुझारू सिपाही, संस्कृतिकर्मी हरमिन्दर पाण्डे ने किया।
षाम 5 बजे से इप्टा आजमगढ़, लखनऊ, रायबरेली और आगरा के कलाकार लगभग 7 किमी की पैदल यात्रा करते हुए राहुल पे्रक्षागृह तक गये। रास्ते में कलाकारों ने गीतों और लोकनृत्यों के जरिये आजमगढ़ के लोगों को घंटों गीत-संगीत मय रखा। रास्ते में कलाकारों ने राहुल सांकृत्यायन, नाटककार लक्ष्मीषंकर मिश्र, भगत सिंह, समाजवादी नेता विश्राम राय की मूर्तियों पर माल्यार्पण कर उन्हें सांस्कृतिक यात्रा की ओर से नमन किया।
राहुल प्रेक्षागृह में इप्टा लखनऊ, आजमगढ़, आगरा के जनगीतों के अलावा इप्टा आजमगढ़ के लोककलाकारों ने जांघिया व धोबिया नृत्यों की प्रस्तुति की। इन नृत्यों के पारम्परिक स्वरूपों के साथ बैजनाथ यादव ने आज के किसानों, गरीबों की समस्याओं को कुषलता के साथ जोड़ा है। सांस्कृतिक संध्या का समापन दिलीप रघुवंषी के निर्देषन में इप्टा आगरा के बहुचर्चित नाटक ‘राई’ का मंचन किया गया। इस अवसर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रान्तीय सचिव डाॅ. गिरीष तथा भाकपा के जिला सचिव हामिद अली लगातार कलाकारों का उत्साहवर्धन करते रहे। इस अवसर पर वामिक जौनपुरी पर केन्द्रित ‘वर्तमान साहित्य’ के नये अंक का विमोचन भी किया गया।
3 नवंबर 2009
सुबह 9 बजे सांस्कृतिक यात्रा में षामिल कलाकारों का पहला पड़ाव था राहुल का जन्मस्थल ‘पन्दहा’। कलाकारों ने पन्दहा में अभी हाल में स्थापित राहुल की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया। पन्दहा में षोक का वातावरण था। 25 अक्टूबर को राहुल की सहधर्मिणी कमला सांस्कृत्यायन नहीं रही। 2 नवंबर को ही पन्दहा में राहुल स्मारक बनाने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले आइपीएस विजय कुमार के चैदह वर्षीय बेटे की आकस्मिक मृत्यु ने भी वातावरण को षोकाकुल कर दिया। साथ ही दो तीन दिन पहले ही राहुल सांस्कृत्यायन के परिवार से जुड़ी एक महिला के दुखद निधन के कारण सांस्कृतिक कार्यक्रम को रोककर कलाकारों ने सभी दिवंगतों को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि दी। इस षोकाकुल माहौल में भी राहुल जनकल्याण समिति के प्रबंधक राधेष्याम पाठक ने कलाकारों का स्वागत किया और उन्हें जलपान कराया।
आजमगढ़ चेकपोस्ट, मोहम्मदपुर, बिन्द्रा बाजार, गोसाई बाजार में कार्यक्रमों के बाद यात्रा लालगंज तहसील के प्रांगण में पहुँची जहाँ आजमगढ़ इप्टा के लोककलाकारों द्वारा पहले से ही लोकगीतों और लोकनृत्यों के कार्यक्रम प्रस्तुत किये जा रहे थे। एक किनारे पर दो दर्षकों में बहस चल रही थी। एक की टिप्पणी थी ‘यह लोग कार्यक्रम तो अच्छा कर रहे हैं, इन्हें पैसा कौन देता है? दूसरे ने कहा-‘सुन नहीं रहे हो इनके गीत, पूंजीपतियों की सरकार की जमकर खिल्ली उड़ा रहे है, भला इन्हें पैसा कौन देगा। पहले ने फिर टिप्पणी की-‘फिर भी कहीं से तो पैसा पाते होंगे। लाल झंडा थामे एक कामरेड ने हस्तक्षेप करते हुए कहा-हाँ यह हम गरीब मजदूरों, किसानों से पैसा पाते हैं। जो हम खाते हैं वही इन्हें खिलाते हैं और यह कलाकार हमारी समस्याओं को ही अपने गीतों, नाटकों में उठाते हैं। एक और व्यक्ति ने टिप्पणी की-बात तो सच्ची और सही कहते हैं पर थोड़ा मज़ा और आना चाहिए। सुनने वाले कलाकारों ने भी समझा-जनता को स्वस्थ मनोरंजन भी चाहिए। जब यह वार्तालाप चल ही रहा था तभी आगरा इप्टा के साथियों ने षुरू किया राजेन्द्र रघुवंषी की कहानी पर आधारित नाटक ‘सात जूते’। कैसे एक कंजूस सेठ को उसका मुनीम सबक सिखाता है। कथा और प्रस्तुतीकरण इतना रोचक था कि जनता ने सचमुच कहा-मजा आ गया।
लालगंज तहसील प्रांगण में भाकपा के जिला सचिव हामिद अली ने यात्रा का स्वागत करते हुए कहा कि इस तरह की सांस्कृतिक यात्राओं का क्रम जारी रहना चाहिए। भाकपा के प्रदेष सचिव डाॅ गिरीष ने कहा कि वामिक जौनपुरी के बहाने यह यात्रा किसान-मजदूरों की समस्यायें उठाने के साथ-साथ फिरकापरस्ती, जातिवाद, रूढ़िवाद और पुनरूत्थानवाद पर भी चोट करती है और प्रगतिषील षक्तियों का यह दायित्व है कि इस जनजागरण अभियान में कलाकारों की पूरी मदद की जाये।
लालगंज से यह यात्रा मीरा बाजार पहुँची जहाँ 1942 की आजादी की लड़ाई के समय स्वतंत्रता सेनानियों के एक सभास्थल को क्रान्तिकारी चबूतरे का नाम दिया गया है। इसी चबूतरे पर अपार जनसमूह पहले से ही एकत्र था। यहाँ जनगीतों के अलावा रायबरेली इप्टा के साथियों ने अपना नाटक ‘सरकार की जनता’ प्रस्तुत किया। दर्षकों की भारी भीड़, उत्साह के कारण 4 बजे समाप्त होने वाला कार्यक्रम षाम 6 बजे तक चला। आगे वरदह में प्रगतिषील लेखक संघ के साथी संजय श्रीवास्तव अन्धेरा होने की षिकायत कर रहे थे। जब तक यात्रा वहाँ पहुँची गौरा बादषाहपुर के साथियों का आग्रह था कि कलाकारों को फौरन वहाँ पहुँचना चाहिए। मजबूरन वरदह के कार्यक्रम को छोड़कर कलाकार गौरा बादषाहपुर पहुँचे जहाँ जनगीतों का प्रभावी कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया।
गौरा बादषाहपुर से पंवारा तक की यात्रा लगभग 50-60 किलामीटर की थी। रास्ते में पड़ने वालों कस्बों में खासतौर पर मछली षहर में कार्यक्रम किया जा सकता था। आमतौर पर ‘इप्टा’ की सांस्कृतिक यात्राओं में कलाकार इतनी दूर तक बस जीप में सवार हो कर यात्रा नहीं करते रहे हैं। कलाकारों के दिमाग में प्रष्न भी था आखिर जौनपुर षहर को बीच में छोड़कर इतनी दूर गांव में यात्रा को ले जाने का क्या अर्थ? पंवारा पहुँचते ही सारी षंकाओं का समाधान हो गया। पंवारा में पेषे से अध्यापक कम्युनिस्ट पार्टी के समर्पित कार्यकत्र्ता कामरेड पटेल ने एक ऊसर जमीन को न सिर्फ उद्यान के रूप में विकसित किया है बल्कि आसपास के हजारों बच्चों के लिए एक आदर्ष स्कूल भी स्थापित किया है-‘भगौती बाल उद्यान।’ उद्यान के प्रांगण में एक बड़ा सा मंच बना है। जनरेटर चल रहा है। लगभग हजार दर्षक पहले से ही जमा हंै। मंच के सामने पूरी जगह भर गयी है। मंच की बायीं तरफ भी सैकड़ों दर्षक हंै। उनकी सुविधा के लिए क्लोज सर्किट टीवी चल रहा है। दर्षकों की संख्या बढ़ती जा रही है। लगभग 9 बजे कार्यक्रम षुरू होता है जो रात 1 बजे तक चलता है। जितेन्द्र रघुवंषी टिप्पणी करते हैं-न दर्षक हार रहे हैं और न कलाकार। अंत में समझौते के रूप में 1 बजे कार्यक्रम का समापन किया जाता है। यहाँ जनगीतों के अलावा इप्टा लखनऊ का नाटक ‘गिरगिट’ प्र्रस्तुत हुआ और अंत में प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि के अंष का नाट्य रूपान्तर। आज़ादी के पहले रंगभूमि के पात्र सूरदास की ज़मीन हड़पने का सवाल आज भी उसी तरह खड़ा है। तब के सूरदास के पास अदम्य आषा थी जिसके कारण जब उसकी झोपड़ी जलाये जाने पर उससे प्रष्न किया जाता है।‘‘बाबा झोपड़ी में आग लग गयी है अब क्या करेंगे? वह जवाब देता है-‘कोई बात नहीं, फिर बनायेंगे।’ और अगर हजार बार आग लगायी गयी? ‘तो हजार बार बनायेंगे।
हमारे देष का किसान आज भी सूरदास की उस अदम्य आषा के साथ खड़ा है। दर्षकों की भागीदारी का इससे अच्छा सबूत क्या हो सकता है कि कलाकारों ने 10, 20, 50, 100 रूपये तक के तीन हजार रूपये से भी ज्यादा का ईनाम कमाया।
4 नवंबर 2009
प्रातः 9 बजे पंवारा से चल कर यात्रा जौनपुर षहर में ‘नबाब का हाता’ पहुँचती है। लगभग दो घंटे के सांस्कृतिक कार्यक्रम और वामिक जौनपुरी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर व्याख्यानों के बाद यात्रा पहुँचती है। सीधे वामिक जौनपुरी के गांव ‘कजगांव। यहाँ यात्रा का स्वागत भाकपा के जिला सचिव श्रीकृष्ण षर्मा ने किया। जौनपुर में प्रगतिषील षायरी के गायन के लिए मषहूर अकडूँ खाँ ने अस्वस्थता के बावजूद नज्म पेष की। कार्यक्रम का समापन हनीफ खाँ के प्रेरक वक्तव्य से हुआ।
कजगांव का एक नाम है ‘टेढ़वा’ वामिक ने इस टेढ़ेपन को खुद्दारी के रूप में ग्रहण किया। उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। कितनी ही नौकरियों को लात मारी और इस खुद्दारी की वजह से ही वह कह सके-
आहन नहीं हूँ कि चाहे जिधर मोड़ दीजिये,
षीषा हूँ, मुड़ तो सकता नहीं तोड़ दीजिये।

कजगांव में वामिक की कब्र पर फूल चढ़ाते हुए हम बार-बार वामिक की वसीयत को याद कर रहे थे। वहाँ से हम पहुँचे ‘लाल कोठी’।
वामिक की मषहूर ‘लाल कोठी’ आज भी खानदानी सामंती रौब का परिचय देती है लेकिन सामंतवादी जुल्मों को देखकर ही सामंत घराने में पैदा हुए वामिक एक विद्रोही षायर बने। उसी लाल कोठी में चल रहे स्कूल के सैकड़ों बच्चे कजगांव के सैकड़ों स्त्री-पुरूष और खुद वामिक के बड़े सुपुत्र वामिक के क्रान्तिकारी व्यक्तित्व के बारे में समझने की चेष्टा कर रहे थे। वामिक के सुपुत्र श्री एस. एम. जैदी ने टिप्पणी की-मैं तो वामिक की सम्पत्ति का वारिस हूँ लेकिन आज मुझे सचमुच वामिक के असली बड़प्पन का पता लगा। समापन कार्यक्रम में बोलते हुए जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय महामंत्री प्रणय कृष्ण ने कहा कि भूमंडलीकरण के इस हमलावर दौर में वामिक हमें हमारे कत्र्तव्यों की याद दिलाते हैं। इंकलाब का सपना कितना भी अधूरा हो वामिक हमें उस ओर बढ़ने का रास्ता दिखाते हैं और इस रास्ते की पहली कड़ी है वामपंथी प्रगतिषील ताकतों की एकता।
सभा को इप्टा के राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र रघुवंषी और भाकपा के प्रान्तीय सचिव डाॅ गिरीष ने भी सम्बोधित किया। समापन समारोह की अध्यक्षता प्रगतिषील लेखक संघ से जुडे़ जाने माने लेखक षकील सिद्दीकी ने की। धन्यवाद ज्ञापन भाकपा जौनपुर के महासचिव जयप्रकाष सिंह ने दिया। इस समूची यात्रा की परिकल्पना में इप्टा के प्रान्तीय सचिव मुख्तार अहमद और षहजाद रिजवी नेे अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यात्रा में षामिल कलाकारों, भाकपा के समर्पित कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम से ही यह सांस्कृतिक यात्रा संभव हो सकी। संस्कृतिकर्मियों और कामगारों के बीच लगातार सम्वाद और सहयोग से ही जनसंस्कृति की रक्षा संभव है।
लाल कोठी के प्रांगण मंे जहाँ आजमगढ़ इप्टा के लोक कलाकारों ने माटी की सुगंध बिखेरी वहीं इप्टा आगरा ने यहाँ अपना नाटक ‘सात जूते’ प्रस्तुत किया और इप्टा लखनऊ ने चेखव की कहानी पर आधारित नाटक गिरगिट। साथ ही चन्द मिनटों में ही इप्टा के राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र रघुवंषी ने लाल कोठी में चल रहे स्कूल के बच्चों से भी एक गीत पर अभिनय कराकर बच्चों को भी यात्रा से जोड़ा। सांस्कृतिक कार्यक्रम का समापन बैजनाथ यादव और जितेन्द्र हरि पांडे के ‘जोगीरा गायन के साथ हुआ। लम्बे समय तक लाल कोठी में यह आवाज गूँजती रहेगीः-
यह अजीब तरह का दौर है
मगर अपनी रौ भी कुछ और है
मेरी उम्र काबिले गौर है
मैं चला हूँ जैसे जबाँ चले
जाहिर है षायर जब खुद से सम्बोधित होता है तो खुद से नहीं जमानेसे सम्बोधित होता है। समूचे वामपंथी आन्दोलन की उम्र को लक्ष्य करके ही वामिक ने षायद यह आह्वान किया कि समाज बदलने वाले आन्दोलन को खुद भी नौजवान की तरह चलना होगा और नौजवानों से जुड़ना होगा।

विवेचना,जबलपुर का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह

रोचक नाटकों का सफल समारोह
विवेचना मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में काम करने वाली विख्यात संस्था है। विवेचना का गठन स्व हरिशंकर परसाई व उनके साथी बुद्धिजीवियों ने सन् 1961 में किया था। तब इसका उद्देश्य ज्वलंत मुद्दों व समस्याओं पर विचार गोष्ठियों का आयोजन करना था ताकि सच्चाई लोगों के सामने आए। आम जन सही तथ्यों को जानें और अपने स्वयं के विवेक व तर्क से निर्णय लें। सन् 1975 से विवेचना के नाट्य दल ने काम करना शुरू किया। तब से आज तक हर साल एक या दो नए नाटक और उनके मंचन, नाट्य कार्यशालाएं,बच्चों के शिविर आदि सभी कुछ निरंतर जारी है। विवेचना के नाटक देश के प्रतिष्ठित मंचों पर हुए हैं और बहुत सराहे गये हैं।
सन् 1994 से विवेचना द्वारा राष्टीय नाट्य समारोह का आयोजन शुरू किया गया। पहले साल का पहला दिन हबीब तनवीर जी के नाम रहा। उन्होंने ही नाट्य समारोह का उद्घाटन किया और देख रहे हैं नैन का शो किया। दूसरे दिन बंसी कौल, तीसरे दिन बा व कारंत और चैथे दिन सतीश आलेकर के नाटक मंचित हुए। इतनी मजबूत बुनियाद के साथ शुरू हुए विवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोहों में अब तक देश के प्रमुख नाट्य निर्देशकों और नाट्य संस्थाओं व संस्थानों के नाटक मंचित हुए हैं। सर्वश्री हबीब तनवीर, बा.व.कारंत, बंसी कौल, सतीश आलेकर, देवेन्द्रराज अंकुर नादिरा बब्बर, दिनेश ठाकुर, दर्पण मिश्रा, उषा गांगुली, देवेन्द्र पेम, अरविंद गौड़, पियूष मिश्रा, रंजीत कपूर,, अनिलरंजन भौमिक, बलवंत ठाकुर, श्रीमती गुलबर्धन, अलखनंदन, लईक हुसैन, अशोक राही, विवेक मिश्र अजय कुमार, मानव कौल और वसंत काशीकर आदि द्वारा निर्देशित नाटक विवेचना के विगत समारोहों में मंचित हो चुके हैं। विवेचना के रा न समारोह में देश के अधिकांश प्रसिद्ध निर्देशक व नाट्य संस्थाएं शिरकत कर चुकी हैं।
विवेचना का रानास अब हर वर्ष दशहरे और दीपावली के बीच सप्ताह में बुधवार से रविवार तक आयोजित होता है। इस पांच दिनी समारोह में प्रायः 6 या 7 नाटक मंचित होते हैं। अब तक लगभग सौ नाटक मंचित हो चुके हैं। जबलपुर में विवेचना के रा ना स का एक बड़ा दर्शक वर्ग तैयार हुआ है। विवेचना का रा ना स शहर से कुछ बाहर की ओर स्थित म प्र वि मं के तरंग ए सी आॅडीटोरियम में आयोजित होता है। फिर भी नाटक शुरू होने से पहले पूरा हाॅल भर जाता है। बाहर कारों मोटर साइकिलों की कतार लग जाती है। ना समारोह के लिए टिकिट बेचना अब कोई समस्या नहीं है और न दर्शकों की संख्या की चिन्ता करना होती है। अंतिम दो दिनों में पचासों दर्शकोे को सीट के अभाव में वापस जाना होता है।
नाटक के प्रचार के लिये अखबार में एक समाचार ही पर्याप्त होता है जिसे साल भर इंतजार कर रहे दर्शक एक नजर में पढ़कर अपना कार्यक्रम तय कर लेते हैं। शहर में बैनर और आकर्षक पोस्टरों के माध्यम से भी दर्शकों को सूचना दी जाती है। इसके बाद दर्शक एक दूसरे को सूचना देना शुरू कर देते हैं और पूरे शहर में नाट्य समारोह देखने का एक माहौल बन जाता है। ये शहर की एक ऐसी गतिविधि बन चुकी है जिसमें जाना प्रतिष्ठा का प्रश्न है। और जो न गया हो उसके लिए हीनताबोध का।

विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 7 अक्टूबर को ’मित्र’ नाटक के मंचन के साथ शुरू हुआ। इसका निर्देशन व प्रमुख भूमिका वसंत काशीकर ने निबाही। यह नाटक डा शिरीष आठवले ने लिखा है। यह एक ऐसे बुजुर्ग की कहानी है जिसे एक झगड़े में लगी चोटों के इलाज के समय लकवा जैसी बीमारी हो जाती है। इसके इलाज के लिए एक नर्स रखी जाती है जिससे दादा साहब बहुत चिढते हैं। नर्स सावित्री बाई रूपवते अपना काम करती है। धीरे धीरे दादा साहेब सामान्य होने लगते हैं। दादा साहब की लड़की उन्हें अमेरिका ले जाना चाहती है पर वे जाना नहीं चाहते। उसके लिए वे नर्स की मदद से अतिरिक्त मेहनत करते हैं और लगभग पूरी तरह ठीक हो जाते हैं। लड़की को विश्वास नहीं होता और वो उन्हें फिर भी अमेरिका ले जाना चाहती है। डाक्टर समझाता है कि ये चमत्कार दादासाहेब की इच्छा शक्ति का परिणाम है। मित्र नाटक मानवीय संबंधों को बहुत बारीकी से रेशा रेशा अलग करता है। दादा साहब पुरोहित और सावित्री बाई रूपवते के संबंध एक मरीज और नर्स के हैं। मगर बार बार ये संकेत देते हैं कि कुछ और भी हो सकता है। नाटककार ने सावित्री बाई रूपवते के रूप में एक अद्भुत आदर्श चरित्र विकसित किया है। नाटक में पिता पुत्री पिता पुत्र और पति पत्नी के संबंधों के अलग अलग रंग उभर कर आते हैं। लड़की के रोल में उदिता चक्रवर्ती, डा के रूप में संजय गर्ग, पुत्र के रूप में अभिषेक काशीकर ने सहज अभिनय किया है। नाटक मानवीय संबंधों के आदर्शांे को स्थापित करने में सफल है। विवेचना की यह प्रस्तुति बहुत पसंद की गई।

दूसरे दिन 8 अक्टूबर 2009 को महमूद फ़ारूख़ी और दानिश हुसैन ने दास्तानगोई प्रस्तुत की। उर्दू में कथाकथन की पांच सौ साल पुरानी परंपरा है। इसे इन दो कलाकारों ने पुनरूज्जीवित किया है। शुरू में महमूद ने दर्शकों को बताया कि वो क्या प्रस्तुत करने जा रहे हैं। दास्तानगोई क्या है और उसका इतिहास क्या है ये बताया गया। बातचीत पूरी शुद्ध उर्दू में थी। दास्तानें शुरू हुईं तो दर्शकों को कुछ समय लगा इस फ़न से जुड़ने में। थोड़ी देर बाद दर्शक और कलाकारों के बीच एक संबंध सेतु बन गया और फिर दर्शकों ने दास्तानों का पूरा आस्वाद लिया। अंतिम दास्तान 1947 के बंटवारे से संबंधित था। इससे दर्शकों ने बहुत जुड़ाव महसूस किया। दास्तानें केवल दास्तानें न रह कर एक पूरा संदेश बन गईं भाइ्र्र्रचारे का, सर्वधर्मसद्भाव का। धर्मान्धता और संकीर्णता पर दोनों कलाकारों ने बहुत समझदारी से तीखा व्यंग्य किया।

तीसरे दिन 9 अक्टूबर 2009 को रंगविदूषक, भोपाल के कलाकारों ने बंसी कौल के निर्देशन में ’तुक्के पे तुक्का’ का मंचन किया। यह नाटक करीब 15 वर्षों से हो रहा है और इसके मंचन देश और दुनिया के अनेक देशों में हुए हैं। यह एक चीनी लोककथा पर आधारित है। इस नाटक को राजेश जोशी और बंसी कौल ने लिखा है। बंसी जी के नाटकों की अपनी विशिष्टता है। रंगीन लाइट्स, रंगीन वेशभूषा, विदूषकों से रंगीन मेकअप वैसे भी दर्शकों को अच्छा लगता है। फिर कहानी को कहने के लिये ये विदूषक कलाकार सर्कसनुमा कम्पोजिशंस बनाते हैं। नाटक और मंच पर पूरे समय गति बनी रहती है। तुक्के पे तुक्का का नायक तुक्कू है जो गांव का एक चतुर युवक है जिसकी पढ़ाई लिखाई में कोई रूचि नहीं है पर वो चतुर है। वो शहर आकर राजा का चहेता बन जाता है और फिर अंततः घटनाक्रम ऐसा चलता है कि वो सुल्तान बन जाता है। नाटक में डिज़ायन कथ्य पर बहुत ज्यादा हावी दिखाई पड़ता है। नाटक की असली उपलब्धि अंजना पुरी का गायन है जो नाटक को बहुत ऊंचा उठाता है।

नाट्य समारोह के चैथे दिन 10 अक्टूबर 2009 को दिल्ली के पिरोज ट्रुप द्वारा ’मिर्जा ग़ालिब’ का मंचन किया गया। इसमें मिर्जा गालिब का किरदार प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता टाॅम आॅल्टर ने निभाया। यह नाटक मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी बयान करता है। हाली को मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी आत्मकथा लिखवाते हैं और इसी दौरान मंच पर घटनाएं प्रदर्शित होती जाती हैं। लगभग दो घंटे के इस नाटक में ग़ालिब के जीवन को परत दर परत सामने लाया गया हैं। ग़ालिब के जीवन की अच्छी बुरी सभी घटनाओं को नाटक में दिखाया गया है। नाटक में टाॅम आॅल्टर ने अपनी अदाकारी से दर्शकों को बहुत प्रभावित किया। नाटक में गति बहुत कम थी और अनेक कलाकारों का अभिनय अभी कड़ी मेहनत की मंाग करता है। नाटक की अवधि में काफी कटौती की जा सकती है। नाटक में मुशायरे के दृश्य एक शोर में तब्दील हो जाते हैं और उसमें ग़ालिब और उनका कलाम कहीं गुम हो जाता है।

नाट्य समारोह के अंतिम दिन 11 अक्टूबर को दिल्ली के दि एन्टरटेनर्स ने रंजीत कपूर के निर्देशन में ’अफ़वाह’ का मंचन किया। शहर के डिप्टी मेयर वीरेन्द्र नागपाल और कविता नागपाल अपनी शादी की दसवीं सालगिरह पर एक पार्टी देते हैं। इस पार्टी में पंहुचने वाले मेहमान एक अजीब मुसीबत में फंस जाते हैं जब वे पाते हैं कि उनका मेजबान खुद की चलाई गोली का शिकार हो गया है। उसकी पत्नि फरार हो चुकी है। राजेन्द्र वीरेन्द्र का वकील है इसीलिए वह इस घटना को छुपाने की कसरत शुरू करता है और शुरू होता हैै मनोरंजक घटनाओं, ग़लतफ़हमियों का लंबा सिलसिला। नाटक के मध्य तक तेज गति बनाए रखी गई और दर्शकों ने खूब मजा लिया। नाटक के संवाद मनोरंजक हैं। नाटक के दूसरे हिस्से में नाटक की लंबाई उबाऊ लगने लगती है और नाटक की गति भी धीमी हो जाती हैं। नाटक में बाद में काफी दोहराव होते हैं। नाटक में सुमन अग्रवाल, अश्विन चड्डा, पूनम गिरधानी, हेमंत मिश्रा, रूमा घोष, अमिताभ श्रीवास्तव, मुक्ता सिंह, वामिक अब्बासी, शैलेन्द्र जैन और तबस्सुम ने बहुत अच्छा अभिनय किया। नाटक ने दर्शकों को आनंदित किया।
विवेचना के सोलहवें नाट्य समारोह में हर नाटक में एक स्वस्थ संदेश था। जबलपुर में परंपरा बन चुके इस समारोह का सफल समापन लगभग एक हजार दर्शकों की उपस्थिति में हुआ। विवेचना के इस समारोह में जहां मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों से रंगकर्मी नाटकों को देखने आए वहीं नाट्य समारोह के आयोजन का साक्षी बने अजित राय, संगम पांडेय और शिवकेश। नाट्य समारोह के अंत में विवेचना के सचिव हिमांशु राय और बांके बिहारी ब्यौहार व म प्र वि मंडल की ओर से श्री संतोष तिवारी ने सभी सहयोगियों, कार्यकर्ताओं और दर्शकों का आभार व्यक्त किया।