Thursday, April 23, 2009

अन्तर्राष्ट्रीय संदेश

विश्व रंगमंच दिवस: 27 मार्च 2009
प्रसिद्ध पुर्तगाली नाट्य निर्देशक आगस्टो बोएल का अन्तर्राष्ट्रीय संदेश
सभी मानव-समाज अपने रोजमर्रा के जीवन में नाटकमय हैं और विशेष क्षणों में नाटक प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक संगठन के रूप में वे नाटकमय होते हैं और वैसे ही नाटक प्रस्तुत करते हैं जैसे आप देखने आते हैं।
कोई जाने या न जाने, इन्सानी रिश्ते नाटकीय ढंग से बुने हुए होते हैं। स्थान, देहभाषा का इस्तेमाल, शब्दों और आवाज के उतार-चढ़ाव का चयन, विचारों और संवेगों की टकराहट - जो कुछ भी मंच पर हम दिखाते हैं, उसे अपने जीवन में जीते हैं। हम खुद रंगमंच हैं।
विवाह और अन्तिम संस्कार ही नहीं बल्कि रोजमर्रा के हमारे चिर-परिचित रीति-रिवाज भी नाटकमय होते हैं, चाहे सचेतन रूप से हमें इसका एहसास न हो। तड़क-भड़क और विभिन्न घटनाओं के अवसर, सुबह की काॅफी, प्रातःकालीन अभिवादन, शर्मीला प्यार और उŸोजना के तूफान, संसद का सत्र या राजनयिक मुलाकात-सब रंगमंच है।
हमारी कला के मुख्य कार्याें में से एक है लोगों को रोजमर्रा के जीवन के ’नाटकों’ के प्रति संवेदनशील बनाना, इन ’नाटकों’ में अभिनेता खुद दर्शक होते हैं, इन प्रस्तुतियों मंें मंच और दर्शक दीर्घा एक हो जाते हैं। हम सभी कलाकार हैं। रंगकर्म करते हुए हम वह सब देखना सीखते हैं, जिसे आम तौर से देख नहीं पाते क्योंकि उस पर ऊपरी दृष्टि डालने के ही आदी हैं। जो हमारा जाना-पहचाना है, वह अनदेखा बना रहता है: रंगकर्म का मतलब है रोजमर्रा के जीवन के मंच पर प्रकाश डालना।
पिछले सितम्बर में हम एक नाटकीय उद्घाटन से अचम्भित रह गये-हम, जो सोचते थे कि युद्धों, नरसंहार, कत्लेआम के बावजूद एक सुरक्षित दुनिया में रहते हैं। सोचते थे कि ये सब चीजें हैं जरूर लेकिन दूर-दराज के जंगली इलाकों में। हम अपने धन को किसी सम्मानित बैंक में जमा कर या स्टाक एक्सचेंज में किसी व्यापारी को सौंपकर आश्वस्त थे कि हमसे कहा गया कि इस धन का अस्तित्व ही नहीं, यह तो हवाई था। यह कुछ अर्थशास्त्रियों का नकली आविष्कार था, जो स्वयं नकली नहीं थे लेकिन विश्वसनीय और ईमानदार भी नहीं थे। यह सब किसी बुरे थियेटर की तरह था, ऐसा विषादभरा कथानक, जिसमें कुछ लोगों ने काफी कुछ जीत लिया और ज्यादातर लोगों ने सब खो दिया। धनी देशों के राजनीतिज्ञों ने गुप्त बैठकें कर कुछ जादुई हल ढ़ंूढ लिये और इन निर्णयों के शिकार हम बालकनी की आखरी पंक्ति के दर्शक ही बने रह गये।
बीस वर्ष पहले मैंने रियो द जेनेरियो का ’पेद्रे’ मंचित किया था। मंच सज्जा दीन-हीन थी, जमीन पर बिछी खालें और चारों तरफ बांस। हर प्रस्तुति से पहले मैं अपने अभिनेताओं से कहती थी: ’जो कल्पनालोक हम रोज़ रोज़ रचते थे, वह खत्म हो गया। इन बांसों के पार जाते ही तुममें से किसी को भी झूठ बोलने का अधिकार नहीं होता। रंगमंच छिपा हुआ सच है।’
जब हम अपनी प्रस्तुतियों के परे झांकते हैं तो शोषकों और शोषितों को देखते हैं: सभी समाजों, नृवंशी समूहों, लिंगों, सामाजिक वर्गों और जातियों मंें हमें अन्यायी और क्रूर दुनिया दिखायी देती है। हमंें एक दूसरी दुनिया की रचना करनी है क्योंकि हम जानते हैं कि यह सम्भव है। लेकिन यह हम पर ही है कि ऐसी दुनिया अपने हाथों से और रंगमंच व अपने जीवन में अभिनय करते हुए बनायें।
इस ’नाटक’ में हिस्सा लीजिये, जो शुरू होने को है और जैसे ही आपकी घर वापसी हो, अपने दोस्तों के साथ खुद के नाटकों का अभिनय कीजिए, फिर आप वह सब देख सकेंगे, जो पहले कभी न देख पाये-वह सब जो प्रत्यक्ष है। नाटक एक आयोजन भर नहीं है, यह जीने का ढंग है।
हम सब अभिनेता हैं: नागरिक होने का अर्थ समाज में रहना नहीं, उसे बदलना है।
इन्टरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट (यूनेस्को), पेरिस द्वारा जारी तथा भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी द्वारा प्रसारित

1 comment:

  1. हिमांशु भाई
    विस्तृत जानकारी और सन्देश हेतु आभार.
    sath hi nivedan hai ki aap window box ke neeche vala shabd pareekshan hata den to jyaada log jd payenge aapse, isme anavashyak samay barbaad hota hai.
    - विजय तिवारी " किसलय "

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