Friday, November 20, 2009

वामिक जौनपुरी जन जागरण सांस्कृतिक यात्रा (2-4 नवम्बर 2009, आजमगढ़ से जौनपुर)


उर्दू के अवामी षायर वामिक जौनपुरी ने अपनी वसीयत कुछ यूँ लिखीः-
‘‘ये इंकलाब है किश्तेरे अवाम का हासिल
हमें न भूलना जब मुल्क में हो वो दाखिल
मेरे भी नाम से दो फूल उसके बैरक पर
मेरी तरफ से भी दो नारे उसकी रौनक पर’’
इस नाउम्मीद से समय में वामिक की षायरी उम्मीद की एक किरण के रूप में अंधेरी राहों को रोषन करती है। समूचा प्रगतिषील सांस्कृतिक आन्दोलन वामिक का ऋणी है। कैफी के षब्दों में
‘‘कोई तो कर्ज चुकाये कोई तो जिम्मा ले
उस इंकलाब का जो आज भी उधार सा है’’
इस कर्ज को चुकाने की जिम्मेदारी तो अवाम पर है लेकिन उसे इस जिम्मेदारी के लिए तैयार करने का काम तो संगठनों का है। ‘इप्टा’, प्रगतिषील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच और कलम नाट्य मंच ने 2 नवंबर से 4 नवंबर 2009 तक कैफी के आजमगढ़ से वामिक के जौनपुर तक दर्जनों गावों-कस्बों में अपने गीतों-नाटकों के जरिये वामिक जौनपुरी के इंकलाब के संदेष को आम अवाम तक पहुँचाने की कोषिष की।
वामिक जौनपुरी के ‘जन्म षताब्र्दी’ साल में ‘भूखा है बंगाल रे साथी’ जैसे अमर गीत के रचयिता वामिक की आवाज हमारे गीतों, नाटकों में उसी तरह थी जैसे फैज ने कहा थाः-
क्या जुल्मतों के बाद भी गीत गाये जायेंगे,
हाँ जुल्मतों के दौर के ही गीत गाये जायेंगे’
1942-43 में बंगाल में ब्रिटिष साम्राज्यवाद द्वारा निर्मित अकाल के लाखों पीड़ितों के लिए देष भर के कलाकार अकाल पीड़ितों के लिए राहत सामग्री जुटाने निकल पडे़ थे। 1943 में बंगाल में खाद्यान्न की कमी नहीं थी लेकिन लोग भूखों मर रहे थे, आज देष खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर है लेकिन अन्न उपजाने वाले लाखों किसान आत्महत्या के लिए अभिषप्त हुए हैं, पर क्या हम लेखक-कलाकारों को इन हत्याओं ने क्या उतना झकझोरा है जितना अखबारों में छपी बंगाल के अकाल की खबरों ने जौनपुर में वामिक को झकझोरा था। वामिक अखबार में छपी खबरें पढ़ कर कलकत्ता पहुँच गये और वहाँ उन्होंने तबाही का जो मंजर देखा उस पर ‘‘भूखा है बंगाल रे साथी भूखा है बंगाल’’ जैसी तारीखी नज्म लिखी।
हर उस बस्ती में हर उस गाँव में, जहाँ कोई भूख से, कर्ज से,षोशण से मरा हो, पहुँचने का जज्बा और हौसला तो अभी हम नहीं बना सके हैं पर शिवली एकेडेमी में वामिक को, उनकी षायरी को याद करते हुए राहुल की जन्मस्थली ‘पन्दहा’ पर कुछ देर का पड़ाव और फिर अनेक स्थानों पर वामिक के बहाने हम यह समझ सकेः-
‘तुम्ही ने नजरूल, निराला, मखदूम जैसों को अपना गम दिया है,
तुम्हीं ने दानिषवरों को अपने षाऊर का जामे जम दिया है,
तुम्हीं ने सेहाफियों को बला का ज़ोरे कलम दिया है,
तुम्हीं ने अपनी हसीन तहजीब को लचकता कदम दिया है’’
‘कला की असली नायक जनता है’ आज भी हमारे गीतों और नाटकों में यह केन्द्रीय तत्व है जिसे हमने वामिक जैसे पूर्वजों से लिया है और इसे ही पुख्ता करने के लिए हम 2 नवंबर 2009 को आजमगढ़ में इक्टठा हुए।
2 नवंबर 2009
अपरान्ह 2 बजे षिवली एकेडेमी के हाॅल में ‘वामिक जौनपुरी की विरासत’ पर आयोजित संगोष्ठी के साथ इस यात्रा की वैचारिक षुरूआत हुई। इलाहाबाद विष्वविद्यालय के उर्दू विभाग के अध्यक्ष, प्रगतिषील लेखक संघ से जुडे़ जाने-माने समालोचक अली अहमद फातमी ने वामिक को कबीर और नजीर की परम्परा का षायर बताते हुए कहा कि वामिक की षायरी में हिन्दी-उर्दू का भेद मिट जाता है। उन्होंने कहा कि 1943 में बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए वामिक ने नज्म सिर्फ लिखी नहीं बल्कि उसे लेकर वह खुद सड़कों पर उतरे। उन्होंने वामिक के हवाले से कहा कि वामिक कहते थेः-
‘मसला यह नहीं कि मसलों का हल कौन करे,
मसला यह है कि इसकी पहल कौन करे’
इस अवसर पर ‘इप्टा’ के राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र रघुवंषी ने संस्कृतिकर्मियों का आह्वान किया कि आज जिस तरह साहित्य-संस्कृति को हाषिये पर धकेल कर उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है, सुनहले सपनों की चकाचैंध से जनता को भरमाया जा रहा है, उससे आम अवाम को आगाह करने के लिए लेखकों-कलाकारों को कबीर, नजीर, प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, कैफी, वामिक, मखदूम जैसे अदीबों की रचनाओं के साथ जनता के बीच जाना होगा।
इप्टा के प्रान्तीय महामंत्री राकेष ने कहा कि वामिक की विरासत से आम अवाम के सुख दुख में षामिल होने की विरासत है। उन्होंने वामिक के हवाले से कहाः-
‘तुम्हारे हल बैल ने हमारे कलम को षाइस्तगी अदा की,
तुम्हारी गुरबत ने हमको फिक्रे नजर की जरजस्तगी अदा की’
हमारी तखलीक को तुम्हारे ख्याल ने बालो पर दिये हैं
हमारी तहरीक को तुम्हारी कुदाल ने रहगुजर दिये हैं’
इप्टा रायबरेली के प्रान्तीय महामंत्री तथा इप्टा के प्रान्तीय मंत्री संतोष डे ने कहा कि हमारी पीढ़ी के संस्कृतिकर्मी वामिक की विरासत से जुड़कर गौरवान्वित हैं और उनकी षायरी से हमारी हौसला अफजाई होती है। आजमगढ़ के संस्कृतिकर्मी तहसीन खाँ ने कहा कि वामिक जौनपुरी की षायरी समूचे प्रगतिषील सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रकाष स्तम्भ है। हम उनकी कल की रचनाओं की रोषनी में अपना आज संवारने निकले हैं।
गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे षिवली एकेडेमी के एसोसिएट डायरेक्टर उमर सिद्दीकी ने कहा कि षिवली एकेडेमी से वामिक जौनपुरी की यात्रा की षुरूआत अंधेरे दौर में रोषनी की षुरूआत है। उन्होंने कहा-जिस तरह मौलाना षिवली ने इल्म का रिष्ता अवाम से जोड़ा उसी तरह वामिक जैसे षायरों ने षायरी को अवाम से जोड़ा।
षिवली कालेज के उर्दू के विभागाध्यक्ष डाॅ षबाबुद्दीन ने कहा कि उन्हें इस बात पर फक्र है कि उनके निर्देषन में षिवली कालेज में वामिक की षायरी पर षोध किया गया है। उन्होंने तरक्कीपसंद तहरीक के योगदान पर चर्चा करते हुए कहा कि अवाम से जुड़कर ही वामिक, कैफी, साहिर, फैज जैसे ष्षायरों ने हुस्न को एक नया मयार दिया और इन्सानियत के झंडे को बुलन्द किया।
गोष्ठी का संचालन इप्टा आजमगढ़ के संरक्षक, आजमगढ़ जनपद में जनान्दोलनों के जुझारू सिपाही, संस्कृतिकर्मी हरमिन्दर पाण्डे ने किया।
षाम 5 बजे से इप्टा आजमगढ़, लखनऊ, रायबरेली और आगरा के कलाकार लगभग 7 किमी की पैदल यात्रा करते हुए राहुल पे्रक्षागृह तक गये। रास्ते में कलाकारों ने गीतों और लोकनृत्यों के जरिये आजमगढ़ के लोगों को घंटों गीत-संगीत मय रखा। रास्ते में कलाकारों ने राहुल सांकृत्यायन, नाटककार लक्ष्मीषंकर मिश्र, भगत सिंह, समाजवादी नेता विश्राम राय की मूर्तियों पर माल्यार्पण कर उन्हें सांस्कृतिक यात्रा की ओर से नमन किया।
राहुल प्रेक्षागृह में इप्टा लखनऊ, आजमगढ़, आगरा के जनगीतों के अलावा इप्टा आजमगढ़ के लोककलाकारों ने जांघिया व धोबिया नृत्यों की प्रस्तुति की। इन नृत्यों के पारम्परिक स्वरूपों के साथ बैजनाथ यादव ने आज के किसानों, गरीबों की समस्याओं को कुषलता के साथ जोड़ा है। सांस्कृतिक संध्या का समापन दिलीप रघुवंषी के निर्देषन में इप्टा आगरा के बहुचर्चित नाटक ‘राई’ का मंचन किया गया। इस अवसर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रान्तीय सचिव डाॅ. गिरीष तथा भाकपा के जिला सचिव हामिद अली लगातार कलाकारों का उत्साहवर्धन करते रहे। इस अवसर पर वामिक जौनपुरी पर केन्द्रित ‘वर्तमान साहित्य’ के नये अंक का विमोचन भी किया गया।
3 नवंबर 2009
सुबह 9 बजे सांस्कृतिक यात्रा में षामिल कलाकारों का पहला पड़ाव था राहुल का जन्मस्थल ‘पन्दहा’। कलाकारों ने पन्दहा में अभी हाल में स्थापित राहुल की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया। पन्दहा में षोक का वातावरण था। 25 अक्टूबर को राहुल की सहधर्मिणी कमला सांस्कृत्यायन नहीं रही। 2 नवंबर को ही पन्दहा में राहुल स्मारक बनाने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले आइपीएस विजय कुमार के चैदह वर्षीय बेटे की आकस्मिक मृत्यु ने भी वातावरण को षोकाकुल कर दिया। साथ ही दो तीन दिन पहले ही राहुल सांस्कृत्यायन के परिवार से जुड़ी एक महिला के दुखद निधन के कारण सांस्कृतिक कार्यक्रम को रोककर कलाकारों ने सभी दिवंगतों को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि दी। इस षोकाकुल माहौल में भी राहुल जनकल्याण समिति के प्रबंधक राधेष्याम पाठक ने कलाकारों का स्वागत किया और उन्हें जलपान कराया।
आजमगढ़ चेकपोस्ट, मोहम्मदपुर, बिन्द्रा बाजार, गोसाई बाजार में कार्यक्रमों के बाद यात्रा लालगंज तहसील के प्रांगण में पहुँची जहाँ आजमगढ़ इप्टा के लोककलाकारों द्वारा पहले से ही लोकगीतों और लोकनृत्यों के कार्यक्रम प्रस्तुत किये जा रहे थे। एक किनारे पर दो दर्षकों में बहस चल रही थी। एक की टिप्पणी थी ‘यह लोग कार्यक्रम तो अच्छा कर रहे हैं, इन्हें पैसा कौन देता है? दूसरे ने कहा-‘सुन नहीं रहे हो इनके गीत, पूंजीपतियों की सरकार की जमकर खिल्ली उड़ा रहे है, भला इन्हें पैसा कौन देगा। पहले ने फिर टिप्पणी की-‘फिर भी कहीं से तो पैसा पाते होंगे। लाल झंडा थामे एक कामरेड ने हस्तक्षेप करते हुए कहा-हाँ यह हम गरीब मजदूरों, किसानों से पैसा पाते हैं। जो हम खाते हैं वही इन्हें खिलाते हैं और यह कलाकार हमारी समस्याओं को ही अपने गीतों, नाटकों में उठाते हैं। एक और व्यक्ति ने टिप्पणी की-बात तो सच्ची और सही कहते हैं पर थोड़ा मज़ा और आना चाहिए। सुनने वाले कलाकारों ने भी समझा-जनता को स्वस्थ मनोरंजन भी चाहिए। जब यह वार्तालाप चल ही रहा था तभी आगरा इप्टा के साथियों ने षुरू किया राजेन्द्र रघुवंषी की कहानी पर आधारित नाटक ‘सात जूते’। कैसे एक कंजूस सेठ को उसका मुनीम सबक सिखाता है। कथा और प्रस्तुतीकरण इतना रोचक था कि जनता ने सचमुच कहा-मजा आ गया।
लालगंज तहसील प्रांगण में भाकपा के जिला सचिव हामिद अली ने यात्रा का स्वागत करते हुए कहा कि इस तरह की सांस्कृतिक यात्राओं का क्रम जारी रहना चाहिए। भाकपा के प्रदेष सचिव डाॅ गिरीष ने कहा कि वामिक जौनपुरी के बहाने यह यात्रा किसान-मजदूरों की समस्यायें उठाने के साथ-साथ फिरकापरस्ती, जातिवाद, रूढ़िवाद और पुनरूत्थानवाद पर भी चोट करती है और प्रगतिषील षक्तियों का यह दायित्व है कि इस जनजागरण अभियान में कलाकारों की पूरी मदद की जाये।
लालगंज से यह यात्रा मीरा बाजार पहुँची जहाँ 1942 की आजादी की लड़ाई के समय स्वतंत्रता सेनानियों के एक सभास्थल को क्रान्तिकारी चबूतरे का नाम दिया गया है। इसी चबूतरे पर अपार जनसमूह पहले से ही एकत्र था। यहाँ जनगीतों के अलावा रायबरेली इप्टा के साथियों ने अपना नाटक ‘सरकार की जनता’ प्रस्तुत किया। दर्षकों की भारी भीड़, उत्साह के कारण 4 बजे समाप्त होने वाला कार्यक्रम षाम 6 बजे तक चला। आगे वरदह में प्रगतिषील लेखक संघ के साथी संजय श्रीवास्तव अन्धेरा होने की षिकायत कर रहे थे। जब तक यात्रा वहाँ पहुँची गौरा बादषाहपुर के साथियों का आग्रह था कि कलाकारों को फौरन वहाँ पहुँचना चाहिए। मजबूरन वरदह के कार्यक्रम को छोड़कर कलाकार गौरा बादषाहपुर पहुँचे जहाँ जनगीतों का प्रभावी कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया।
गौरा बादषाहपुर से पंवारा तक की यात्रा लगभग 50-60 किलामीटर की थी। रास्ते में पड़ने वालों कस्बों में खासतौर पर मछली षहर में कार्यक्रम किया जा सकता था। आमतौर पर ‘इप्टा’ की सांस्कृतिक यात्राओं में कलाकार इतनी दूर तक बस जीप में सवार हो कर यात्रा नहीं करते रहे हैं। कलाकारों के दिमाग में प्रष्न भी था आखिर जौनपुर षहर को बीच में छोड़कर इतनी दूर गांव में यात्रा को ले जाने का क्या अर्थ? पंवारा पहुँचते ही सारी षंकाओं का समाधान हो गया। पंवारा में पेषे से अध्यापक कम्युनिस्ट पार्टी के समर्पित कार्यकत्र्ता कामरेड पटेल ने एक ऊसर जमीन को न सिर्फ उद्यान के रूप में विकसित किया है बल्कि आसपास के हजारों बच्चों के लिए एक आदर्ष स्कूल भी स्थापित किया है-‘भगौती बाल उद्यान।’ उद्यान के प्रांगण में एक बड़ा सा मंच बना है। जनरेटर चल रहा है। लगभग हजार दर्षक पहले से ही जमा हंै। मंच के सामने पूरी जगह भर गयी है। मंच की बायीं तरफ भी सैकड़ों दर्षक हंै। उनकी सुविधा के लिए क्लोज सर्किट टीवी चल रहा है। दर्षकों की संख्या बढ़ती जा रही है। लगभग 9 बजे कार्यक्रम षुरू होता है जो रात 1 बजे तक चलता है। जितेन्द्र रघुवंषी टिप्पणी करते हैं-न दर्षक हार रहे हैं और न कलाकार। अंत में समझौते के रूप में 1 बजे कार्यक्रम का समापन किया जाता है। यहाँ जनगीतों के अलावा इप्टा लखनऊ का नाटक ‘गिरगिट’ प्र्रस्तुत हुआ और अंत में प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि के अंष का नाट्य रूपान्तर। आज़ादी के पहले रंगभूमि के पात्र सूरदास की ज़मीन हड़पने का सवाल आज भी उसी तरह खड़ा है। तब के सूरदास के पास अदम्य आषा थी जिसके कारण जब उसकी झोपड़ी जलाये जाने पर उससे प्रष्न किया जाता है।‘‘बाबा झोपड़ी में आग लग गयी है अब क्या करेंगे? वह जवाब देता है-‘कोई बात नहीं, फिर बनायेंगे।’ और अगर हजार बार आग लगायी गयी? ‘तो हजार बार बनायेंगे।
हमारे देष का किसान आज भी सूरदास की उस अदम्य आषा के साथ खड़ा है। दर्षकों की भागीदारी का इससे अच्छा सबूत क्या हो सकता है कि कलाकारों ने 10, 20, 50, 100 रूपये तक के तीन हजार रूपये से भी ज्यादा का ईनाम कमाया।
4 नवंबर 2009
प्रातः 9 बजे पंवारा से चल कर यात्रा जौनपुर षहर में ‘नबाब का हाता’ पहुँचती है। लगभग दो घंटे के सांस्कृतिक कार्यक्रम और वामिक जौनपुरी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर व्याख्यानों के बाद यात्रा पहुँचती है। सीधे वामिक जौनपुरी के गांव ‘कजगांव। यहाँ यात्रा का स्वागत भाकपा के जिला सचिव श्रीकृष्ण षर्मा ने किया। जौनपुर में प्रगतिषील षायरी के गायन के लिए मषहूर अकडूँ खाँ ने अस्वस्थता के बावजूद नज्म पेष की। कार्यक्रम का समापन हनीफ खाँ के प्रेरक वक्तव्य से हुआ।
कजगांव का एक नाम है ‘टेढ़वा’ वामिक ने इस टेढ़ेपन को खुद्दारी के रूप में ग्रहण किया। उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। कितनी ही नौकरियों को लात मारी और इस खुद्दारी की वजह से ही वह कह सके-
आहन नहीं हूँ कि चाहे जिधर मोड़ दीजिये,
षीषा हूँ, मुड़ तो सकता नहीं तोड़ दीजिये।

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